होकर दौलतपुर की तरफ़ रवाने हुए। रास्ते में मैने साहब बहादुर को फलगू के दिए हुए इजहार को सुना दिया था। उसे सुन और फलगू वगैरह से उसकी तसदीक करा कर जनाब सुपरिन्टेन्डेन्ट साहब बहादुर से उस कागज पर अपना दस्तखत कर दिया है और मेरी भी उस पर सही हो रही है।"
"खैर, हमलोग दोपहर होते-होते उस गांव में पहुंच गए और विश्वनाथ तिवारी के मकान पर आकर अच्छी तरह उस घर की देख-भाल की गई। वाकई, हुजूर! उस घर की उस वक्त वैसी ही हालत थी, जैसी कि फलगू ने अपने बयान में बतलाई थी। फिल हकीकत, घर की हालत देखने से यही यकीन होता था कि, 'रात को जरूर इस मकान में डांका पड़ा है!' मगर खैर, वे पांचों मुरदे तो पुलिस की निगरानी में कारोनर की जांच के लिये कानपुर रवाने किए गए और हमलोग उस खून की तहकीकात करने लगे। गो, उस गांव के बहुतेरे आदमी पलेग के डर से इधर-उधर भाग गए थे, पर जो मौजूद थे, उनसे पूछने पर किसी ने भी उस वार्दात के बारे में कुछ भी नहीं बतलाया। हिरबा की मां को भी हमलोग देखने गए थे, पर फलगू के कहने-यमूजिब वह बुखार में बदहवास पड़ी थी और हिरवा की जोरू का कहीं पता न था। यह सब देख सुन कर उस वक्त हमलोगों ने यही समझा था कि, 'डांकूलोग दुलारी के साथ ही साथ हिरवा की जोरू को भी पकड़ ले गए हैं!' लेकिन थोड़ी ही देर में यह खयाल गलत साबित होगया और एक नया ही गुल खिल उठा !!!"
बस, इतना कहते-कहते कोतवाल साहब जरा रुके थे कि पट 'हाकिम ने उससे पूछा,—"ऐं! नथा गुल क्या खिल उठा?"
यह सुन, कोतवाल साहब फिर कहने लगे,—"दो पहर ढलने पर, एक बजे के करीब,' रसूलपुर के थानेदार अब्दुल्लाखां हींगम चौकीदार के साथ एक इक्के पर सवार वहां आ पहुंचे। पस, जब