यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६७
खग्रास

मैंने साहस किया, और विमान का आवरण खोल दिया और चन्द्रलोक की भूमि पर पैर रखा। डरते-डरते मैं दस बीस कदम चला। मुझे कुछ भी असुविधा नहीं प्रतीत हुई। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे मैं साइबेरिया के भीतरी प्रान्तो में विचर रहा होऊँ। परन्तु मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वहाँ की जमीन में हमारी पृथ्वी ही की भॉति मिट्टी है।"

"तब तो अवश्य ही वहाँ वनस्पति और प्राणियो का आभास मिलना चाहिए।"

सुनती जाओ, मेरा रक्षा कवच मेरे अङ्ग पर था और मेरे जीवन की सारी ही क्रियाये उसी के द्वारा सम्पन्न हो रही थी। मुझे अपना सारा शरीर हल्का लग रहा था और चलने फिरने में मुझे कोई असुविधा नहीं हो रही थी। मैंने भूमि से मिट्टी उठाकर उसकी परीक्षा की। पहाड़ी इलाको में जैसी पथरीली भूमि होती है, वैसी ही भूमि राख मिली हुई वहाँ थी। लोग ठीक ही कहते है कि चन्द्रमा पृथ्वी से ही टूटा हुआ एक खण्ड है। अब यदि वहाँ पृथ्वी के समान वायुमण्डल भी है तब तो कुछ बात ही नहीं है। पृथ्वी के मनुष्य मजे में वहाँ रह सकते है। मैंने मिट्टी के कुछ नमूने वहाँ से संग्रह किए।

"चन्द्रलोक के उस भाग में इस समय ऐसा प्रकाश था जैसा सुबह या शाम का झुटपुटा प्रकाश होता है। अलबत्ता एक बात और यह थी कि उस प्रकाश मिश्रित अन्धकार में कुछ बेगनी झलक थी। हमारी पृथ्वी पर तो यह झलक स्वर्णिम या रक्तिम रहती है। परन्तु इसका कारण शायद यह था कि पृथ्वी पर सूर्य की सीधी किरणे आती है, परन्तु यहाँ चन्द्रलोक में तिरछी आ रही थी।

"एक और बात थी। यहाँ पृथ्वी पर जैसी हम क्षितिज रेखा देखते है, जहाँ पृथ्वी और आकाश मिलते नज़र आते है, वहाँ वह बात नहीं थी। मुझे ऐसा दीख रहा था जैसे दूर चारो ओर हल्के वसन्ती रंग का समुद्र लहरा रहा है। परन्तु वे लहरे ठीक लहरे जैसी न थी। कही तो ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे दूध पकाते समय उबाल-सा आता है। इसके अतिरिक्त ऊपर तक वैसे ही रंग के बादल से चारो ओर नजर आ रहे थे। जो विचित्र रीति से हिल डुल रहे थे। मैंने आगे बढ़ कर उसकी परीक्षा करनी चाही। पानी को