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खग्रास

हो?' तोपो की गड़गड़ाहट मेरे कानो में आ रही थी। मैंने कहा--'सुन रहा हूँ दोस्तो। लेकिन मैं अभी विमान से बाहर नहीं निकल सकता। मैं नही जानता कि बाहर वायु हे या नहीं।"

"लेकिन अभी तो तुम्हारे पास काफी द्रव प्राणवायु है।"

"हाँ है। किन्तु मुझे एक भय है" मैने शंकित चित्त से कहा। आवाज आई--'क्या भय है?' आवाज प्रो० कुकाश्नि की थी। उनकी वाणी उद्वेग से कॉप रही थी। मैंने कहा--'आप है प्रोफेसर, मुझे भय यह है कि वायुमण्डल के अभाव में चन्द्रलोक के अन्तरिक्ष में कास्मिक किरणो का बहुल अस्तित्व न हो।"

प्रोफेसर ने अश्वासन देते हुये कहा---'घबराओ मत। अब तुम अपने को पृथ्वी की ऊँचाई से क्यो नापते हो। अब तो तुम एकदम चन्द्रमण्डल की भूमि पर हो वहाँ तल अन्तरिक्ष में कास्मिक किरणो की प्रथम तो सम्भावना ही नहीं है। फिर यदि हुई भी तो बहुत कम जिनका मुकाबिला करने की सामर्थ्य तुम में यथेष्ट है।"

"अब मुझे याद आया---हॉ, ठीक ही तो है। अब तो मैं चन्द्रलोक की भूमि पर हूँ। वायुमण्डल के निचले स्तर में कास्मिक किरणे अत्यल्प होती है। इससे मुझे कुछ ढाढस बँधा और मैंने अब यान से बाहर निकलने की तैयारी शुरू की।"

"जोरोवस्की, तुम तो सारे संसार के मनुष्यो से निराला काम कर रहे थे।"

"बेशक। और इसी भावना ने मुझे साहस दिलाया। कास्मिक किरणो से बचाव का तथा दूसरे सब आवश्यक प्रबन्ध करके मैंने साहस करके चन्द्रलोक की भूमि में चरण रखा।

"चन्द्रलोक का यह वह भाग था जिसे पृथ्वी के मनुष्य नहीं देख सकते थे। यद्यपि यहाँ इस समय सूर्य का प्रकाश न था किन्तु इसे सर्वथा अन्धकार भी नहीं कहा जा सकता था। शाम के झुटपुटे जैसा था जो कभी कम कभी अधिक होता रहता था। तापमान वहाँ का शून्य से भी सौ डिग्री नीचे था।