थी। जनरल मिर्जा सैनिक गुट के समर्थक थे। सुहरावर्दी एक ओर राष्ट्रीय असेम्बली मे लेवनान मे अमरीकी सेनाओ के उतारने का समर्थन कर रहे थे, दूसरी ओर तत्कालीन मुख्यमन्त्री अताउर रहमान खॉ कम्युनिष्ट प्रभावित शाति परिषद् की बैठक में पाकिस्तान की विदेश नीति की निन्दा कर रहे थे। पाकिस्तान मे न तो राजनीतिक निष्ठा थी, न राजनीतिक कार्यक्रम।
सैनिक क्रान्ति से १५ दिन प्रथम कराची मे मुस्लिम लीग कौन्सिल की बैठक हुई जिसमे रिपब्लिकनो द्वारा उसकी स्वयसेवक सेना पर प्रतिबन्ध लगाने पर विचार हुआ। कयूमखॉ और उनके गुट ने सीधी कार्यवाही की राय दी। नतीजा यह हुआ कि कराची और लाहौर मे सेनाएँ तैनात कर दी गई। यदि लीग ऐसा-वैसा कदम उठाती तो अवश्य भीषण परिणाम होता। जनरल मिर्जा के पिट्ठू सीधी कार्यवाही के विरोधी थे। पर वे जानते थे कि सेना कब्जा करना चाहती है। इनमे एक महमूदाबाद के राजा भी थे जो चार अक्टूबर को ही पाकिस्तान छोडकर बेरुत चले गए थे जहाँ से फिर वे ईराक भाग गए।
अधिकाश सैनिक और असैनिक अधिकारियो को लीग से सहानुभूति थी। यह बात महत्त्व की थी। मुस्लिम लीग को यदि चुनाव जीतने की आशा होती तो क्रान्ति न होती। पर निष्पक्ष चुनावो की कोई सम्भावना ही न थी। क्योकि रिपब्लिकनो ने लाहौर मे तथा अबामी लीग ने ढाका मे चुनाव के लिए प्रशासन यन्त्र का उपयोग करने का निश्चय कर रक्खा था। ज्यो ही जनरल मिर्जा को पदच्युत किया गया-कुमारी फातिमा जिन्ना ने इसका स्वागत किया। जनरल अयूब अपने मन्त्रिमण्डल के साथ कायदे आजम और लियाकतअलीखाँ के मजारो पर गए और उन्होने सर्दार अब्दुर्रबनिश्तर की कब्र पर भी फातिहा पढा जो मृत्यु के समय लीग के अध्यक्ष थे।
हकीकत यह थी कि जनरल मिर्जा को जबर्दस्ती सेना को सत्ता सोपने को विवश किया गया था। जनरल अयूब ने उनसे कहा था कि या तो आप खुद हमारी बात मानले नही तो जबर्दस्ती मनवाई जायगी। जनरल मिर्जा का खयाल था कि सैनिक जनरल प्रशासन न कर सकेगे और अवसर