दोनो चौककर गूढ पुरुष की ओर देखने लगे। उन्होने प्रतिभा का हाथ पकड कर तिवारी के हाथ मे देते हुए कहा—"खूब सावधान रहना बेटे, यह असाधारण हाथ है। और यह तुम्हे कभी धोखा नही देगा।"
"किन्तु पापा—"
"अब किन्तु कैसा? तुम से तो मैने पहिले ही पूछ लिया था।"
तिवारी ने सजल नेत्रो से गूढ पुरुष की ओर देख कर कहा—
"किन्तु इस कदर अकस्मात्?"
"पुत्र, क्या तुम इन्कार करते हो?"
"ओह पापा मै इस अनुग्रह का पात्र नही हूँ।"
"तो मै मूढ पुरुष हूँ। तुम्हे मैने पहचाना नही?" फिर उन्होने प्रतिभा की ओर मुँह फेर कर कहा—"और तुम प्रतिभा? तुम क्या कहती हो?" प्रतिभा रोती हुई उनके बल पर झुक गई। उससे कुछ भी कहते न बना गूढ पुरुष ने तेज नजर से तिवारी की ओर देखा।
तिवारी ने झुककर उनके चरण स्पर्श किए, और गद्गद् कण्ठ से कहा—
"समझ गया पापा, भाग्योदय अकस्मात ही होता है।"
"तुम ऐसा कह सकते हो—पर मै नही, मैने तीन दिन विचार किया है। इतनी देर तक तो मैने किसी भी गूढ़ विषय पर नही विचारा। तो तुम स्वीकार करते हो?
"हाँ पापा"
"और तुम प्रतिभा?"
"हा पापा"
"बस ठीक है। तो अब मैं जाऊगा। प्रतिभा मैं जानता हू तुम यह सहन न कर सकोगी। बचपन ही से मैने तुम्हे पाला था। तुम्हारी माता को प्रसव वेदना ही मे चल बसी थी। उसकी स्मृति-स्वरूप मैंने तुम्हे ऑखो पे रखा था। परन्तु अब समय आ गया। तुम्हे मुझे विदा करना होगा।