"भगवान् एक पुराना अनुमान ही है जिसका वास्तव मे कोई अस्तित्व नहीं है।"
"तो आप नास्तिक भी है?"
"क्या विज्ञान का विद्यार्थी नास्तिक हो सकता है? जो एक परमाणु मे निहित कोटि-कोटि व्यूहाणुओ के अस्तित्व को भी जानता मानता है।"
"परन्तु वह भगवान् को नही मानता?"
"कैसे मान सकता है, जब कि उसका अस्तित्व ही नही है। हजारो वर्ष तक कोटि-कोटि मानवो ने अनुमान को प्रणाम किया, अब वह अपने को जान गया है। वह स्वंय विज्ञान का अधिष्ठाता और ब्रह्माण्ड का स्वामी है, उससे महान् कोई नही है।"
"एक चोर, ज्वारी, कोढी, कलकी, पापी, अपराधी, हत्यारा भी तो मानव है, वह भी क्या देवता के समान पूज्य है?"
"नही तो क्या? केवल मानव होने के नाते वह पूज्य है। उसमे जो ये कलुष है, सो उसके नही, ऊपर से लादे हुए है, जैसे माँ अबोध बालक को, जो अज्ञान के कारण मलमूत्र मे लतपथ हो जाता है, धो-पोछ कर स्नेह से छाती का दूध पिलाती है, वैसे ही विज्ञ जन मानव के सब कलुष दूर करके उन्हे पवित्र और महान् बना कर देवता बना सकते है।"
"एक आदमी यदि स्वभाव से ही अपराधी प्रकृति का हो, सुधार कैसे हो सकता है?"
अब तक उसके सुधार के उपाय किए किसने है? न्याय के नाम पर या तो ऐसे अपराधियो को कत्ल कर डाला गया या जेल में ठूस दिया गया। परन्तु अब देर तक ऐसा न होने पायगा। विज्ञान अपराध को रोग कहता है। और उसका कहना है कि अब अपराधियो के लिए जेल के स्थान में अस्पताल बनाए जाने चाहिए।"
"अस्पताल?"