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खग्रास

भी न था, परन्तु उस असाधारण बाला के साक्षात्कार और बातचीत ने उन्हे जैसे आमूल विचलित कर दिया था। वे सोच रहे थे—इस तरुणी रूपसी बाला का जैसा असाधारण ज्वलन्त रूप है, वैसा ही अगाध ज्ञान और ज्ञानकी गरिमा भी है। उसके समक्ष उन्होने अपने को एक भुनगे के समान तुच्छ समझ लिया था। वह महापुरुष कितने ज्ञान के सागर और अटूट शक्ति के स्तम्भ होगे जिनके चरणतल मे रह कर यह बाला ऐसी ज्ञानवती बन गई है। उन्होने अब यह भी समझ लिया कि वे क्यो नही किसी से मिलते। भला ऐसा लोकोत्तर सत्व जो सारे ब्रह्माण्ड को अपने अगाध ज्ञान और महती शक्ति से हस्तामलक बनाए हुए है, उन मनुष्यो से क्या सम्पर्क रख सकता है जो अपने ही जीवन के बोझ से चकनाचूर है।

वह यह प्रतिज्ञा करके लौटे थे कि बाला से वार्तालाप तथा वहाँ जो कुछ उन्होने देखा, उसका वह किसी से वर्णन न करेगे तथा उन्हे अब उस महापुरुष के सम्मुख उपस्थित होने को भी अपने को तैयार करना था। उन्हे ऐसा प्रतीत हुआ कि वे एक असह्म ज्वलन्त पिण्ड के समक्ष जा रहे हैं और इसके लिए उन्हे असाधारण रूप से तैयार होना होगा।

अतः यह स्वाभाविक था कि जब इस असाधारण मनस्थिति मे वे लडखडाते कदम रखते हुए डेरे पर पहुचे तो दलीपकुमार और उनकी पत्नी उन्हे देखते ही चिन्तित हो उठे। उन्होने समझा कि तिवारी को अवश्य ही शिकार मे कोई खतरनाक दुर्घटना का सामना करना पड़ा है। अतः वे आतुरता से उनकी कुशल पूछने लगे। तिवारी ने उनसे टूटती वाणी मे केवल इतना ही कहा कि उन्हे इस समय आराम की अत्यन्त आवश्यकता है और उन्हे चुपचाप सोने दिया जाय।

दिलीप ने जब भली भाँति यह देख लिया कि उनके शरीर पर कोई चोट नहीं है, तब उन्होने आश्वस्त होकर उनके विश्राम की व्यवस्था कर दी। और तिवारी सोने का बहाना करके आँख मूद कर पड रहे। इस समय उनके मस्तिष्क मे अनेक अद्भुत विचार पनप रहे थे। खाने-पीने की उनकी रुचि ही न थी। दिलीप ने भी उन्हे बाधा नही दी। सारी रात कुछ सोते और कुछ जागते उन्होने इसी प्रकार व्यतीत की।