बँगले के निकट पहुंच कर तिवारी आश्चर्यचकित रह गये। अपनी आशा के नितान्त विपरीत उन्होने देखा—बँगले के कम्पाउण्ड मे नाना प्रकार के सुन्दर फूल खिले है। क्यारियाँ बडी नफासत से काटी गई है, देशी विलायती पुष्पो का चयन बडी ही सुरुचि से किया गया है। बँगले की सफाई सजावट इतनी आधुनिक थी कि कल्पना ही की जा सकती थी। कुछ देर तिवारी बाहरी सहन मे खडे रहकर फूलो की शोभा देखते रहे। उन्हे आशा थी कि बँगला एकदम उजाड-मनहूस और सुनसान होगा परन्तु वहाँ का मनमोहक दृश्य देखकर वे ठगे से खडे रह गये। इसी समय उनके कान मे एक मधुर स्वर सुनाई पडा—"आइये, भीतर चले आइये।" तिवारी ने आँख उठाकर देखा-बराण्डे मे एक रूपसी बाला खडी मुस्करा रही है। बाला का सौन्दर्य अनुपम है, उसकी बड़ी-बडी आँखो से रस वर्षा हो रही थी। वह कवि की रुचिर कल्पनाओ की साकार प्रतिमा, अथवा पल्लवित कुसुम गुच्छ सी दीख रही थी। उसका अङ्ग-प्रत्यङ्ग साँचे में ढला था। उसका गात्र ऐसा कोमल था कि देखते ही बनता था। रङ्ग उसका केले के नवीन पत्ते के समान था।
तिवारी के कान मे उसके शब्द वीणा की मधुर झंकार की भॉति सुन पडे। उन्होने हाथ की सिगरेट फेक और हैट उतार कर एक क्षण भर मुग्ध दृष्टि से बाला की ओर देखा और आगे बढकर मुस्कराते हुए कहा—"नमस्कार, बडा सुन्दर प्रभात है।"
"ओह, तो आप कोई शिकारी ही नही है, कलाकार की दृष्टि भी रखते है? हमारे इस पार्वत्य प्रदेश का प्रभात सदैव ही सुन्दर होता है।"
"और वह सौन्दर्य इन क्षणो मे और भी मोहक हो गया है।"
"कैसे?"
"आपकी उपस्थिति और इन फूलो के कारण।"
"अच्छा तो आप व्यवसाय से शिकारी, दृष्टि से कलाकार और हृदय से भावुक साहित्यकार भी है।"