"क्या ऐसा भी सम्भव है"
"क्यो नही। डा॰ भामा ने जोर दे कर कहा।
"डाक्टर भामा, आपका अभिप्राय क्या है?"
"देखिए—विज्ञान दो रूपो मे विकसित होता है, एक रचनात्मक, दूसरा ध्वसात्मक। मै रचनात्मक विकास का समर्थक हूँ। अब तक हमने उद्जन की ध्वसात्मक शक्ति का ही सन्तुलन किया है, उसका रचनात्मक वैज्ञानिक व्यौरा अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
"उद्जन का रचनात्मक उपयोग क्या हो सकता है भला?"
"आप जानते है कि ससार के कोयला, तेल, आदि ईंधन के भण्डार समाप्त होते जा रहे है। और वे ईंधन का कोई विकल्प ढ्ढने मे व्यग्र हैं। जैनेवा सम्मेलन मे इस बात पर विचार हुआ था, पर इसका कोई हल नही निकला। परन्तु वह हल हमारे सामने उपस्थित है।
"कैसा हल?"
"आप जानते है प्रोफेसर, पहिला आधुनिक ईंधन हमे परमाणु शक्ति से मिला है, किन्तु दूसरा सर्वाधिक सशक्त ईंधन हमे जल से मिल सकता है।"
"अच्छा! आपके कहने का क्या अभिप्राय है?"
"जल मे असीम उद्जन शक्ति निहित है। यह शक्ति हमे समुद्र के जल से प्राप्त करनी होगी।"
"समुद्र के जल से?"
"हाँ, पन्द्रह को अठारह बिन्दुओ से गुणा करने पर जो सख्या प्राप्त होती है, समुद्र मे उतने टन जल है। और इस जल से इतनी शक्ति प्राप्त हो सकती है जो नब्बे नील वर्ष तक भी खत्म न होगी
"ओफ्फो, यह तो बडे ही आश्चर्य की बात है।"
प्रोफेसर कुरशातोव यह सुनकर अत्यन्त गम्भीर हो गए। क्योकि जैनेवा के अधिवेशन मे वे यह घोषणा कर चुके थे कि आगामी बीस बरस मे मनुष्य उद्जन शक्ति का उपभोग कर सकेगा। उन्होने कुछ अकचका कर कहा—