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खग्रास

आज अपने ही घरो मे पराई राजनीति की लोह श्रृड्खला मे बँधे छुटपटा रहे थे।

वे एक दूसरे को पत्र-सम्वाद तक न भेज सकते थे। विदेशियो को पूर्वी से पश्चिमी बर्लिन जाने-आने की छूट थी। और उनके सम्मुख बर्लिन के असहाय नागरिक कातर प्रार्थना अनुनय विनय करके उनके हाथो अपने सगे सम्बन्धियो को पत्र भेज देते थे। कितनी दयनीय स्थिति थी, कितना अमानुषी बन्धन था। जिसे सभ्यता के नाम पर कलङ्क कहना भी यथेष्ट नही हो सकता।

इस प्रकार बर्लिन की नागरिकता का बध किया जा रहा था। और इसका अन्त तब तक नहीं हो सकता था जब तक कि जर्मनी के एकीकरण की समस्या न हल हो जाय।

मास्को चाहता था कि पूर्वी जर्मनी मे कम्युनिस्ट शासन व्यवस्था कायम रहे। और पश्चिमी जर्मनी से अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रान्स अपनी सेनाएँ हटा ले। तथा पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी का एक सघ राज्य स्थापित हो जाय जो तटस्थ नीति अपनाए। परन्तु पश्चिमी राष्ट्र चाहते थे कि पूर्वी जर्मनी से रूस अपनी सेनाएँ हटा ले, और तब स्वतन्त्र चुनावो के आधार पर जर्मनी का एकीकरण होकर वहाँ जनतन्त्रवादी व्यवस्था कायम हो जाय। और फिर पश्चिमी राष्ट्र उसे अपनी सुरक्षा व्यवस्था मे सम्मिलित कर ले।

अभी यह समस्या एक अन्तर्राष्ट्रीय उलझन बनी हुई थी कि सोवियत सघ के प्रधान मन्त्री खुश्चेव ने घोषणा कर दी कि रूस पूर्वी बर्लिन से अपनी सेना हटा कर उसका शासन पूर्वी जर्मन सरकार को सौपना चाहता है। रूस का प्रस्ताव था कि चारो बड़े राष्ट्र बर्लिन शहर से अपनी सेनाएँ हटा ले और बर्लिन मे स्वतन्त्र शहर सरकार की स्थापना हो जाय। फिर पश्चिमी और पूर्वी जर्मनी मिल कर अपने देश के भविष्य का आपस मे फैसला कर ले।

यदि रूस ने बर्लिन को छोड दिया तो स्पष्ट था कि जर्मनी में रूस का प्रेम बढेगा और अमेरिका से घृणा होगी। अमेरीका मे कुछ ऐसी त्रुटियाँ