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खग्रास

गोष्टी मे गप्पे उड़ा रहा था। रूप उजागरी भव्य वेशधारिणी महिलायां हंस हंस कर आलाप कर रही थी। कोई हथिनी की भाति झूमती हुई, कोई हंसनी की भाति इठलाती हुई, कोई मैना की भांति चहकती हुई वहाँ के वातावरण को भव्य बना रही थी। उनके हीरे-मोती रत्नमणि के आभरण नए निराले सूबुक वेशभूषा पर गुलाबी चमक से जगमगा रहे थे। किसी की चम्पक वर्णी सुतनु उ गलियो मे नजाकत से पकड़ी हुई रूसी ढ़ग की चुरुट, किसी की चुटकियों मे फसाहत से उठाया हुआ काफी का प्याला, किसी के कर पल्लव मे एक छोटी सी प्लेट बहार बखेर रही थी। ठौर-ठौर दो-दो चार-चार दस-दस पाच-पाच भद्रजन एकाध नई नवेली को घेरे बाते करते जाते थे, चाय काफी की चुस्की लेते जाते थे। कोई पौढ पुरुष अकेले ही फिलास्फराना शान से चुरुट के धुएँ से आकाश मे जादू सा कर रहे थे। बहार ही बहार थी। बहार मे बालाएँ भी थी, तरुणियां भी थी, प्रौढाएँ भी थी। बनाव शृंगार में प्रौढा भी नवेलियो से कम न थी। भारतीय और अभारतीय दोनो ही प्रकार के भद्र सम्भ्रान्त नर नारियो से उस समय वह दूतावास आपूर्यमाण हो रहा था। दर्जनो बैरा, खानसामा खाने-पीने की दर्जनो ट्रे सजाए घूम फिर कर अतिथियों की अभ्यर्थना कर रहे थे। देश देशान्तर के राजदूत, राजपुरुष, राज प्रतिनिधि, साहित्यकार और गण्यमान्य नरनारी वहाँ उपस्थित थे। रूप वहां बिखरा जा रहा था। महिलाओ की मन्द मुस्कान, उनके अंगो पर धारण किए रत्नमणि हीरे बिजली के प्रकाश मे आँखो मे चकाचौंध लगा रहे थे। उनके लिपस्टिक रजित ओठो से निकले मर्मर शब्द और उनके वस्त्रो से निकली हुई भाँति-भाँति की सुगन्ध से वातावरण भरा था। एक ओर मृदुमन्द ध्वनि सगीत प्रसारित हो रहा था। परन्तु प्रत्येक के मुँह पर स्पूतनिक की चर्चा थी। अपने अपने ज्ञान और समझ के अनुसार लोग नानाविधि अटकलें लगा रहे थे।

इसी समय वह अघट घटना घटी। एक भारी सी वस्तु आकाश मे उडती हुई भवन की छत पर आहिस्ता से आ टिकी। ज्योही उस वस्तु का भवन की छत पर भू-स्पर्श हुआ, एक हलके से खटके के साथ वह वस्तु दो