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बासि शाति के पतगार की शोभा अनोखी नित नई है, नाव में, विश्रानि जरा से, मुख कमल प्रिय धो रहे है, सजन मेरे सो रह हैं। ४ ले चत्तो कुछ देर को तो शयन अपगा कूल तक, प्रिय, हग निमीशित मम करो, अब थक गए है ये पलक, शिय, नित्य जाति वेदना से है, शिथिल मन, मुखि, इद्रिय, आज टुक विश्रान्ति के हित मम युगल दंग रो रहे हे सजन मेरे सो रहे है। श्री गणश कुटीर, गताप कानपुर, अगस्त १९३६ बाचन