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कासि है अनेकों दीप, मे हू एक, नितित, अमित, अक्षम, चला कसन हिसान मुझसे तो न जायेगा सँभाला, नगणिता तव दीपमाला। यदि तुम्हारी ज्याति छिटके, इस धेरी कोठरी में, यदि मुझे भी बॉध लो तुम दीपमाला की लडी में, तो हृदय की कलन लिसा शात होगी इस घडी में, क्योंकि मैं भी उस निमिप में हो उठेंगा ज्योति घाला। यदि इधर फेले उजाला । ५ मन मगन होना, सजा, उस छिन कि जब नव दीप बन कर, मे लुटाऊँगा जगत को तव रुचिर आलोक मा हर, ज्योति का स देश लेकर में फिरूंगा नित्य घर घर, मृत्तिका के पात्र में तुम अब भरो निज रूप माला, इधर फेता दो उजाला। श्री गणेश कुटीर कानपुर दिनाङ्क १० १२३ बयालीस