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कासि ओर धनी हो गई तगिता लरा यह दीप शिखा बलग्वाती, तुम पिन तिता तिल कर जाती है मेरे स्मरण दीप को बाती । बन कर हूक अचूक रम हो, प्रियतम, तुम मेरे जीवन में, ना जाने किस दर देस से झोंको हो मन पातायन में ! नो मेरे निर्मोही, प्राओ, मरे इस सूने सानन में, भूल गा क्या ? जल धाराएँ तम दिन मुझको नहीं सुहाती ? अहनिशि तिल तिल कर जलती हे मेरे स्मरण दीप की बाती। ५ तुम क्या गप कि इस जीवन की सत्य प्रेरणा लुप्त हुई है, तुम क्या गए कि इस जीवन की मधुरू मावा सुप्त हुई है, तुम क्या गए कि मेरी कविता आज बन गई छुई मुई है, तम पया गए कि इस जीवा में रहा न कोई सहज सँगाती, तुम बिन तिल तिल कर जलती है मेरे स्मरण दीप को बाती । ६ अपनी पत्थर की आखो से मेने सब कुछ देखा है, प्रिय, महा प्रयाण थान पर उ मन तुमको चढते पेखा है, प्रिय, हैं कितनी कठोर ये ऑखें, इसका क्या कुछ लेखा है, प्रिय, तम्हें अगि अर्पण करके भी फटी नही यह निष्ठर छाती । तुम बिन तिल तिल कर जलती है मेरे स्मरण दीप की याती। श्री गणेश कुटीर, कानपुर दिनाङ्क ११ जुलाई, १६४६ चालीस