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वासि तो हो जाता ज्ञात उ है है यह उनकी ही लीला, है पकिलता आज हमारी माटी के कण कण में, प्राणों के पाहुन पाए औ' लोट चले इक क्षण में । अतिथि निहार आज हमारी रीती पतझड-बेला, आज हगों में निपट दुदिनों का है जमघट मेला, झडी और पतझड से ताडित जीवन निपट अकेला, हम खोप से खडे हुए हैं एकाकी आँगन में, प्राणों के पाहुन आए औ' चले गय इक क्षण में । श्री गणेश कुटीर, कानपुर दिनाङ्क ६ मई १९३८ } पच्चीस