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६ अब तो उन पर भी डण्डे बरसने लगे हैं। अस्तु । सो उन दिनों वे गति युक्त समझे जाते थे और उनको सर्वश्रेष्ठस्व के नीचे का श्रासन यदि कोई दे तो उनका पक्ष लिया जाता था। पर, समय बड़ा बलवान है। कुछ दिनों के अनन्तर उन मालोचक बन्धु को यह लगा कि जिनको वे अब तक आकाश में बढ़ाते पाये उनके शुद्ध लत्ते लेने चाहिए। कदाचित् वे कवि मित्र-द्वय, अालोचक की प्रगतिवादी दृष्टि से, उतर चुके थे। इस कारण उनमें से एक महानुभाव की जिस प्रकार मिट्टी पलीत की गई है, उसका एक उदाहरण लीजिए । स्मारक रखिये कि ये शटद उन्हीं प्रालोचक के हैं जिन्होंने इन कवि मित्र की प्रशंसा का सेतुबन्ध, नल-नील से भी अधिक परिश्रम से, किया था। इन कवि श्रेष्ठ की धज्जियाँ उड़ाते हुए बालोचक महोदय कहते हैं- "धन्य है वह कवि जो जन्मते ही उत्थान-पतनों को देखने लगा था। उन्हें देखने के बाद जो 'प्रोफेटिक' चेतना जी, उससे भारत मही भी कृतार्थ हो गई। तभी तो दूसरे महायुद्ध के पहले की एक रदना में उसका तुमुल घोष भी सुन लिया । मैं जागरण का कवि हूँ। भारत की जनता मूर्ख है। जागरण का सन्देश देकर मैंने उसे चिर उपकृत किया है......की हर पंक्ति से यही ध्वनि निकलती है। किसी को विश्वास न हो तो ध्वनि की तरफ कान न लगाकर, शब्दों से मूर्त रूप को हो देख ले।...के लिये लिखा है कि जनता के मन में जो अन्धविश्वास और मृत आदर्शों के प्रति मोह है उसे छुड़ाने का प्रयत्न कर उन्होंने नवीन जागरण का सन्देश दिया है। हिन्दुस्तान की जनता कितनी भी पिछड़ी हुई हो, वह किसी दूसरे की रोटी के सहारे नहीं जीती। हिन्दुस्तान का पिटारे विमा किसान...अमुक जी से ज्यादा दर्शन समझता है । वह ईमानदार है, इसलिए रामनामी के नीचे कामशास्त्र नहीं छिपाता और, सजीव भाषा का प्रयोग तो वह इन्हें युगों तक सिखा सकता है।" देखा न आपने ? कहीं कुछ हो गया और लगा कलम कुल्हाड़ा चलने । और उन अन्य कवि की भी, जिनकी उन्होंने प्रशंसा की, अन्त में छीछालेदर कर दी। उन्होंने उन कवि को व्यक्तिवादी कहा और अन्त में उन्हें व्यक्तिवाद के स्यार की उपाधि से विभूषित कर उनका श्राद्ध कर दिया। इसी प्रकार एक और बालोचक मित्र की बात है । जब वे आलोचक इन प्रगतिवादी एकाधिपति आलोचक के गुष्ट में सम्मिलित थे तब तो ये उन्हें एक प्रतिभाशाली बालोचक मानते थे, पर, जब इनसे उनका मतभेद हो गया तो इन्होंने तुरन्त उन्हें निकृष्ट लेखक की उपाधि से विभूषित कर दिया।