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शासि हम नही कच्चे खिलाडो, चुके हम स्नेह दीक्षा, यह तुम्हारी टोह, साजन, जागरण स देश लाई 'नास्मि' की अगुज आई। नाज तो है हाथ मेरे ढूंढते से और खाली, पर अवधि इक 'आज' की कब से हुई सीमा त वासी ? हैं अनादि अन त मेरे 'आज' की घडियाँ निराली, ढूंद तू गा सॉझ के पहलो अनश अपना क हाई, 'नास्मि' की अनुगूज पाई। अाज, दिन रहते, मिलोगे तुम, मुझे हे पूर्ण निश्चय, क्योंकि तुम कह जो गार हो, तुम हरोगे रात का भय, अङ्कशायी तुम बनोगे, लुप्त होंगे नश संशय, है अचल सौभाग्य मेरा, नेह की मरी सगाई, 'नास्मि' की अनुगूज पाई। श्री गणेश फुटीर, राति ११ बजे दिनाक २८ नवम्बर १९३६ } पक सो उन्नीस