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छासि गगन विहारी नेह लगन तम मम दिनकर, निशिपति, तुम मम उडुराजि अजर तुम मम का लोल लहर ! 1 ४ तुम मेरी परिसीमा, तुम मम दिक काल रूप, तुम ही धर पाए हो यह जग जजाल रूप । पर, तुम हो चिर अकारा, नित्य अदिक् , हे अनूप ! तग को कैसे रॉध मेरा आ मेरी लोल लहर ! अस्तिच प्रहर ? पू 1 सदा तुम्ही तुम हो, प्रिय, इस जीवन की गति में, जीवन ही क्यों ? तुम हो जड की भी सहति में, चेतनमय उनति में, औ' जडमय अननति में . मेरे प्रिय, पल रही ता भाभा बहर छहर तुम मरी लोल लहर । ६ भाया हूँ लेकर मे यह शाश्वत टोह भार । हिय पर घर लाया हूँ यह अमाव लोह भार ।। कौन ? कहाँ क्यों ?--का है यह जहापोह भार !!! तुम बिन, हो रही, प्राण, दूसर अस्तित्व डगर । पो मेरी ज्योति लहर। ७ तुम मम जीवन निकास, तुम मेरी चलित श्वास, तुम मेरे रक्त रास, तुम मम चेतन वितास, इक्यानवे