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बौद्धाचार्य शीलभद्र


शीलभद्र के बुद्धिप्राखर्य ने उनको मोहित कर लिया। थोड़े ही समय मे शीलभद्र ने अपने विद्यागुरु के विद्याभाण्डार को ग्रहण करके अपने हृदय, कण्ठ और जिह्वा के अर्पण कर दिया।

इसके कुछ समय बाद दक्षिण से एक पण्डितराज मगध-नरेश की सभा मे आये। उन्होने आचार्य धर्मपाल को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। धर्मपाल सभा मे बुलाये गये। पर दन्तदेव ने गुरु को शास्त्रार्थ करने के लिए जाने से रोका। मेरे रहते मेरे गुरु से शास्त्रार्थ! पहले वह पण्डित मुझे परास्त कर ले, तब मेरे गुरुदेव का मुकाबला करे। अन्यथा यह नहीं हो सकता। धर्मपाल अपने सच्छिष्य की योग्यता से अच्छी तरह परिचित थे। उन्होने कहा "सिद्धिरस्तु," "गम्यतां वत्स"।

इस आदेश से और अध्यापक डरे। भला यह कल का अल्पवयस्क दन्तदेव विजयी दाक्षिणात्य पण्डित का मुकाबला कैसे कर सकेगा? कहीं यह नालन्द का नाम न धरावे। इस तरह की शङ्काओं का उत्थान करके उन्होंने आचार्य की आज्ञा का प्रतिवाद किया। पर आचार्य धर्मपाल ने सबका समाधान कर दिया। दन्तदेव मगधराज के दरबार से अपना पाण्डित्य दिखाने के लिए रवाना हुए। साथ मे सैकड़ों अध्यापक और विद्यार्थी भी गये। दूर-दूर से लोग यह अद्भुत शास्त्रार्थ सुनने के लिए आये। शास्त्रार्थ का दिन नियत हुआ। सभा-स्थान