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पण्डित मथुराप्रसाद मिश्र


ओहदे पर हैं। उनका कथन है कि जहाँ तक वे जानते हैं, मिश्रजी ने कालेज से कभी छुट्टी नहीं ली; कभी वे बीमार नही हुए; और कभी वे देरी से नही आये। उनकी याद मे एक बार मिश्रजी को कालेज में जाड़ा देकर ज्वर आ गया। इससे जब अपनी चौकी पर उनसे किसी तरह न बैठे रहा गया तब वे बाहर बरामदे मे चले गये। वहाँ अपनी पालकी के भीतर वे सिकुड़कर बैठ गये। इधर लड़के यह जानकर ख़ुश हुए कि आज इनसे पिण्ड छुटा। परन्तु केवल १५ मिनट हुए थे कि मिश्रजी फिर अपनी कुरसी पर आकर डट गये।

सुनते हैं, पण्डितजी के मिज़ाज मे सख्ती बहुत थी। इसी से कालेज से सम्बन्ध रखनेवाले लोग उनको ज़रा कम पसन्द करते थे। पहले पण्डितजी घर से कालेज तक अपनी पालकी के दरवाज़े खोलकर पाते थे। परन्तु पीछे से पालकी के दरवाज़े बन्द करके वे कालेज जाने लगे। यह परिवर्तन शायद उनकी किसी सख्ती ही के परिणाम का सूचक हो।

पण्डितजी कायदे के भी सख्त पाबन्द थे। इसी से वे चाहते थे कि और लोग भी उन्ही का अनुकरण करे। परन्तु सब लोग "मथुराप्रसाद" न थे। उनसे सख्ती न होती थी। वे थोड़ी-थोड़ी बात के लिए लड़को की रिपोर्ट न करते थे। यह बात मिश्रजी को पसन्द न थी। पण्डित दीनदयालु तिवारी, इस समय, इस प्रान्त मे, मदरसों के असिस्टंट इन्सपेक्टर हैं। मिश्रजी के समय मे वे उनके अधीन