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पण्डित मथुराप्रसाद मिश्र


बाधाओ को तुच्छ समझकर अध्ययन मे चित्त लगाया। सुनते हैं, ये सदैव अपने दरजे मे सबसे ऊँचे रहते थे और जितनी परीक्षायें होती थीं, सबमे, इनको पारितोषिक मिलता था। उस समय यूनीवर्सिटो की स्थापना न हुई थी, एम० ए०, वी० ए० का कहो नाम न था। एन्ट्रन्स, अर्थात् प्रवेशिका, परीक्षा तक जारी न हुई थी। कालेज मे केवल दो विभाग थे---एक जूनियर, दूसरा सीनियर। १८४६ ईसवी मे पण्डित मथुराप्रसाद सीनियर क्लास मे पहुँच गये। उसमे उनका आसन सब विद्यार्थियों के ऊपर हुआ। बनारस-कालेज के भूतपूर्व अध्यक्ष डाक्टर वालेटाइन ने अपनी दी हुई सरटीफ़िकट मे ऐसा ही लिखा है। मिश्रजी ने अपनी तीव्र-बुद्धि, विद्याभिरुचि और योग्यता से अपने अध्यापकों को सदा प्रसन्न रक्खा।

पण्डितजी ने १८४६ ईसवी, अर्थात् २० वर्ष की उम्र, मे विद्याध्ययन समाप्त किया। समाप्त उन्होने क्या किया, उन्हें करना ही पड़ा। उससे आगे अध्ययन का प्रबन्ध ही न था। यदि पण्डितजी ने सात वर्ष की उम्र मे पढ़ना आरम्भ किया तो १३ वर्र्ष मे उसकी समाप्ति हुई। इससे यह अनुमान होता है कि पहले यदि हिन्दी और संस्कृत पढ़ने मे उनको ६ वर्ष लगे तो ७ वर्ष तक उन्होने अँगरेज़ी पढी। उस समय इतना पढ़ना बहुत काफ़ी था। और इस बात को अपनी विद्वत्ता से पण्डितजी ने अच्छी तरह सिद्ध भी कर दिखाया।