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कोविद-कीर्तन


केवल ३२ वर्ष मे समाप्त हो गया! हन्त ! ब्रह्मदेव सचमुच ही महाअन्यायी जान पड़ता है!

शास्त्रीजी का स्वभाव बहुत ही सरल और दयालु था। लिखने मे वे यद्यपि इतने प्रवीण थे तथापि वाचालता उनमें न थी। एक बार एक विद्वान् पुरुष उनके लेखों से मोहित होकर उनसे मिलने आया। शास्त्रीजी ने उसे आदर-पूर्वक बुलाया और बिठाया; परन्तु उसके आसन ग्रहण करने पर उन्होंने अपनी ओर से कुछ पूछ-पाछ न की, और न उस आगन्तुक पुरुष ही ने कुछ कहा। इसका फल यह हुआ कि कुछ देर चुपचाप बैठे रहने के अनन्तर शास्त्रीजी ने एक पुस्तक हाथ मे ले ली और उसे वे देखने लगे। यह देखकर दो-चार मिनट मे वह आया हुआ गृहस्थ भी उनको नमस्कार करके उठ गया। शास्त्रीजी के रूप-रङ्ग को देखकर कोई नया मनुष्य यह नहीं विश्वास कर सकता था कि ऐसे अच्छे लेख उनकी लेखनी से निकलते होंगे। यद्यपि उनमे वाचालता न थी, तथापि अपने मित्रो के साथ वे प्रसन्नतापूर्वक वार्तालाप करते थे। स्वभाव के वे बड़े ही उदार थे। जिस पर उनका विश्वास जम जाता था उसे वे हृदय से चाहते थे। अपनी परिमित आमदनी मे से दान-पुण्य भी वे करते थे। दो-एक दीन ब्राह्मणों के कुटुम्ब का पालन भी उन्होंने यथा-साध्य किया है।

विष्णु शास्त्री अपने देश के पूरे भक्त थे। उनके समान देशाभिमानी होना कठिन है। परन्तु वे इतने सत्यप्रिय थे