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विष्णु शास्त्री चिपलूनकर


से पीडित होकर जिस प्रकार ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने अपने इतने बड़े माननीय पद को तृणवत् समझकर एक क्षण में छोड़ दिया उसी प्रकार पूने मे विष्णु शास्त्री ने शिक्षा-विभाग से सम्बन्ध तोड़ने में किञ्चिन्मात्र भी आगा-पीछा नहीं किया। भारत-भूमि को ऐसे ही ऐसे दृढ़प्रतिज्ञ, स्वतन्त्रताभिमानी और स्वदेश-प्रिय पुरुषो की आवश्यकता है। खेद है, ऐसे-ऐसे महात्मा इस देश को अपने जन्म से यदाकदा ही भूषित करते हैं।

रत्नागिरी से आकर, अपने मित्रो की सलाह से, विष्णु शास्त्री ने, १८८० ईसवी मे, "न्यू इँगलिश स्कूल" नामक एक नवीन पाठशाला खोली। उस पाठशाला मे अध्यापन का काम शास्त्रीजी के साथ-साथ उनके मित्र पण्डित बाल गड्गाधर तिलक और महादेवराव नामजोशी करने लगे। कुछ दिनों के अनन्तर पण्डित गोपाल गणेश आगरकर और वामन शिवराम आपटे भी उनमे आ मिले। इन पॉच विद्वानों ने मिलकर इस नवीन शाला का काम इतनी योग्यता से करना आरम्भ किया कि थोड़े ही दिनों मे वह पाठशाला बहुत ही उन्नत अवस्था को पहुँच गई। वही इस समय "फ़रगुसन कालेज" के नाम से प्रसिद्ध है। खेद का स्थल है कि शास्त्रीजी को अपनी स्थापित की हुई पाठशाला का कालेज मे परिणत होना, जीवन दशा मे, देखने को न मिला।

विष्णु शास्त्री नवीन पाठशाला ही को स्थापन करके चुप नही बैठे। उन्होने "केसरी" नाम का समाचार-पत्र मराठी