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कोविद-कीर्तन


उनको उनके पाठ कण्ठ हो जाते थे; उन्हें कण्ठ करके वे पाठशाला जाते थे और वहाँ शान्त-चित्त बैठे हुए अध्यापक के मुख से निकली हुई शिक्षाओ को सुनते थे। पाठशाला की पुस्तकों को पढ़ने के अनन्तर जो समय उन्हे मिलता था उसे वे कभी व्यर्थ न जाने देते थे। मराठी भाषा के नाटक, उपन्यास और समाचारपत्र इत्यादि पढ़ने मे उसे वे लगाते थे। उनको पुस्तका- वलोकन की बड़ी अभिरुचि थी। उसमे उनको विशेष आनन्द मिलता था। पढ़ने से उनको कभी भी विरक्तता न होती थी। जब तक उनके पास कोई भी पुस्तक पढ़ने के लिए रहती थी तब तक वे दूसरा काम न करते। पढ़ने मे निमग्न देखकर कभी-कभी लड़के उनको तङ्ग किया करते थे; परन्तु वे इसका बुरा न मानते थे और न किसी लड़के को बुरा शब्द कहते थे। लड़कों की इस नटखटता को चुपचाप सहन करके वे पढते रहते थे, पढ़ना वे कभी बन्द न करते थे।

विष्णु शास्त्री का प्रेम जैसा सराठी भाषा पर था वैसा ही संस्कृत पर भी था। जब तक वे स्कूल मे थे तब तक अँगरेज़ी के साथ उनकी दूसरी भाषा मराठी थी; परन्तु सस्कृत का अभ्यास भी वे घर पर करते थे। छोटे ही वय मे संस्कृत का बहुत कुछ ज्ञान उन्होने सम्पादन कर लिया था; यहाँ तक कि मराठी की प्रथम तीन पुस्तकों का संरकृत मे अनुवाद तक उन्होंने कर डाला था। यह अनुवाद उनके वय और उनकी नियमित विद्या के विचार से बुरा न था।