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कोविद-कीर्तन
जाने पर तो न मालूम कितना रुपया पुस्तकें खरीदने में आप ख़र्च कर देते थे।
झालावाड़ के महाराज-राना बहादुर ने अपने निज के पुस्तकालय का नाम, चतुर्वेदीजी ही के नामानुसार—"परमानन्द-लाइब्रेरी"—रक्खा है।
पण्डित परमानन्दजी के धार्मिक विचार वैसे ही थे जैसे विद्वानों के हुआ करते हैं। धार्मिक पक्षपात उनको छू तक न गया था।
पण्डितजी के कोई पुत्र नहीं। उन्होंने अपने भतीजों ही को पुत्रवत् समझा और पढ़ाया-लिखाया। सुनते हैं, महाराज-राना ने उन्हें उदारता-पूर्वक आश्रय देने की कृपा की है।
[नवम्बर १९१४