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कोविद-कीर्तन

इसके तीन वर्ष बाद ह्वेनसॉग वज्रासन तीर्थ (बुद्ध गया) मे पहुँचा। यह ख़बर सुनते ही शीलभद्र ने ४ "श्रमण” उसे लाने के लिए भेजे। ह्वेनसॉग ने इस आमन्त्रण को बड़े भक्तिभाव से स्वीकार किया। तीर्थाटन करते हुए वह नालन्द पहुँचा। २०० श्रमणों ने नालन्द के विश्व-विद्यालय के फाटक पर आकर उसकी अगवानी की। एक सहस्र बौद्धों ने स्तुति-पाठ किया। बड़े समारोह से हेनसॉग विश्वविद्यालय मे लाया गया। जब वह समा-मण्डप मे पहुँचा तब उसे एक श्रेष्ठ आसन दिया गया। वहाँ के प्रधान भिक्षु ने आज्ञा दी कि जब तक ह्वेनसॉग वहाँ रहे उसका वही आदर किया जाय जो एक भिक्षु या उपाध्याय का करना चाहिए। कुछ देर विश्राम करने के बाद २० अध्यापकों ने हेनसॉग को शीलभद्र के सम्मुख उपस्थित किया। उस समय शीलभद्र की उम्र १०६ वर्ष की थी; उनके सिर मे एक भी बाल न रह गया था। वे बिलकुल खल्वाट हो गये थे। ह्वेनसॉग ने दण्डप्रणाम किया और शीलभद्र के पैरों को बड़ी भक्ति से चूमा। शीलभद्र ने ह्वेनसाँग को अपने कर-कमलों से उठाया और आशीर्वाद दिया। हेनसॉग उसी दिन से नालन्द विश्वविद्यालय का विद्यार्थी हुआ और कई वर्षों तक वहाँ रहकर वौद्ध आगमों का उसने अध्ययन किया।

[ अप्रेल १९०८

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