पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/९१

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८२ स्वायकुसुम। (सत्ताईसवा m सत्ताईसवां परिच्छेद. अजायब-घर। " दृष्टं निर्माण नैपुण्य-प्राचुर्य-परमद्धिमत् । रमणीयतरं रम्यं, महाश्चर्यमय गृहम् ॥" [वास्तु-विनोदे] विवार दूसरे दिन दो पहर के बाद, जब कुसुमकुमारो और बसन्तकुमार भोजन आदि से छुट्टी पाकर अपने कमरे में बैठे तो भैरोसिह की दुलाहट हुई और उस के आने पर कुसुमकुमारी ने कहा,- मैं यह जानना चाहती हूं कि परसों रात को मेरा यहां पर का रहना तुमने कों छिपाया था ?" भैरोसिंह,-"इमीलिये कि जिसमें मुकद्दमें में किसी तरह का नल न पड़े। इसके अलावे और कोई बात न थी।" कुसुम,-"और सुरंग की बात तुमने बड़े मते में उड़ा दी!” नैगसिंह.--" सोचिये तो सही कि जो बात आजतक खद आप पर जाहिर नहीं हुई थी. वह दूसरो परज़ाहिर कैले की जाती? इमी लिये उन येईमानों को उल्लू बनाया गया, और इसीसे रूपये की बात भी उड़ा दी जा सकी। कुसुम,-"मगर जो कहीं, मजिस्टर साहब इस सुरंग का भेद जानना चाहते, तो?" भैगहि -"साहबलोग ऐसे ओछे दिल के आदमी नहीं होते कि छिछोरी की तरह बात की जड़ खोदन लगें और अगर वेदेखना हो नाहने तो फकत मुरंग तक मैं उन्हे ले आता और जहां उन पाजियों कामैंने कैद किया था, वहीं तक साहब को दिखाकर राह बताता।" कुसुम,-"अच्छा, मैं इस वक्त तुम्हारे साथ उस अजायबघर की सैर किया चाहती हूं और यह जानना चाहती हूं कि यह सुरंग कर अनी और इसका भेद कौन कौन लोग जानते हैं ? " मैरासिह इमके भेद जाननेवालों मे से अय फकत मै ही जिन्दा

  • - * श्रोगर अ पल ग जानेंगे अर यह कब बनो इसका