पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/७८

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पारउद) कुसुमकुमारा। दो बेशकीमत मानिक की अंगूठियां निकालकर बसंत के आगे रख दी और फिर फूल की मालाओं का चगेर उसके आगे सरकाकर कहा,-"अब ब्याह होजाना चाहिए।" यह सुनकर बसन्त ने एक माला अपने गले में डाल और एक अंगूठी खुद पहिरकर कुसुम से कहा,-" अब तुम भी एक माला अपने गले में डालकर एक अंगूठी पहिर लो।" यह सुनकर कुसुम ने वैसाही किया, इसके बाद पृथ्वी, जल, सूर्य, चन्द्रमा, दीपक, अग्नि, ग्रह, नक्षत्र, वायु, आकाश, दशदिग्पाल और परमेश्वर को साक्षी मानकर आपस में अंगूडी और माला बदल करलो; अर्थात् बसन्त ने अपने गले की माला कुसुम के गले में डाल कर अपनी अंगुली की अंगूठी उसकी अंगुली में पहिराई और कुसुम ने अपनी माला बसन्त के गले में डालकर अपनी अंगुली की अंगूठी उसकी अंगुली में पहिराई। फिर श्रीगणेशजी का नाम लेकर उन दोनों में से प्रत्येक ने यों कहा,- बसन्त,-"तो, प्यारी! तुम मेरी पत्नी हुई ?" कुसुम,-"हां, प्यारे ! धर्म को साक्षी मानकर मैं तुम्हारी इस क्षण से धर्मपत्नी हुई और तुम मेरे प्यारे पति हुए।” वसन्त ने कहा,-"और मैं भी धर्म की साक्षी मानकर इस घड़ी से तुम्हारा प्रिय पति हुआ और तुम्हें मैंने अपनी प्यारी पत्नी बनाया। इसके बाद उनदोनों ने एक दूसरे को अपने हदय से लगाकर कपोलों का बड़े प्रेम से चुम्बन किया।" फिर कुसुम ने बसत के साथ एक ही थाल में भोजन किया और कुछ गाने-बजाने के अनंन्तर दोनों प्रेमी चटक चाँदनी में रंगीली सेज पर जा बिराजे। बस, इसके आगे हमें और कुछ लिखने का, या पाठको को सुनने का अधिकार नहीं है। इसलिये हम अपने प्रेमी पाउकों के साथ कुसुम के शयनमंदिर से बाहर निकलते हैं और अपने पाठकों को यह बात समझाए देते हैं कि आज के पहिले कुसुम और बसन्त में सिवाय पवित्र प्रेम और पाक मुहब्बत के, स्त्री-पुरुष का सा सरोकार नहीं हुभा था, जैसा कि आज हुआ। ___अस्तु, अब हम अपने रसीले पाठकों को आगे की रहस्यमयी घटना का हाल सुनावेंगे।