स्वर्गायकुसुम प्यारे चाह कियो सबै, पैन कियो निरवाह । होय चाह-निरबाह तौ, किमि निकरै मुख आह ॥ ११ ॥ प्यारे तो-बिन जामिनी, भई द्रौपदी चीर । घटै न कहु, थकि रह्यो, बिरह-दुलालन-बीर ॥१२॥ प्यारे भूख मिटाइदै, चुंबन-कंद खवाइ । मेटहु बिरह पियास सब, सुंदर रतिरस प्याइ ॥१३॥ प्यारे तुम तो बसत हौ, हमरे मन के माहि। पै तुमरे मन बसत को, जातें चित्तवत नांहि ॥१४॥ प्यारे प्रेम-प्रभाव ते, जल-पय संग बिकाय । कपट-खटाई परतही, बिलग होइ रस जाय ॥ १५॥ प्यारे अब हौं का कहौं, जैसे बीतत रात । कहिहै सब तुमरो हियो, हमरे हिय की बात ॥६६॥ प्यारे अस जिय होत है, लिखौं सबै निज हाल। बिरह लिखन नहिं देत है, द्वग-आंसुन को ढाल ।। ७ । प्यारे विरह-विथा लिखत, भरि-भरि आवत नैन । कोटि जतन कीनों तऊ, मुख सों कढ़त न बैन ।।१८।। प्यारे पाती लिखन में, कलम गहत थहराय ! आंसुन की सरिता उमडि, कागद देति भिंगाय IN EE प्यारे नैन प्रवाह में, मसि कैसें ठहराय। बिरह-हिलोरनि तें अहो, बचन-रचन छितराय ॥ १०० प्यारे मन तुव पास है, चिन मन कहा बसाय । सोच-समुझ कछु परत नहि, लिखौं कहा अकुलाय॥१ प्यारे पाती प्रेम की, केहि विधि लिखौं सहेत। बिनाहि पढ़े अनखाई तेहि, टूक-टूक करि देत ॥ १०२॥ प्यारे तुमहुँ लिख्यो न कछु, भलो कन्यो यह काज। क्यों बिसरायो हाय मोहि, प्रेम-पंथ तें भाज॥१०॥ प्यारे पाती ना मिले, प्रान होत बेहाल ! अवहीं तो ऐसी करी, आगे कौन हवाल। १०४॥ प्यारे कागद मिलत नहि, कै भई कलम अमोल। रतन मोल कै मसि भई, जौ न लिख्यौ द्वै-बोल ॥ १०५ प्यारे बिनती कान दै, सुनहु हजार-हजार । हसि मुसुकाइ लगाइ हिय, मिलिये ।
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