पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/६३

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उन्नीसवां परिच्छेद।।
प्रेम-पत्रिका !!!।।

" द्रष्टव्येषु किमुत्तमं मृगदशः प्रेमप्रसन्नं मुखं,

घ्रातव्येष्वपि किं तदास्यपवनः श्राव्येषु किं तद्व

कि स्वाद्येषु तदोष्ठपल्लवरस: स्पृश्येषु किं तद्वपु-

ध्येयं किं नवयौवने सहृदयैः सर्वत्र तद्विभमः॥"

(सुभा।।


प्यारे ! प्यारी बात यह, चित दै सुनहुँ सुजान।

कब मिलिहौ सो अब कहौ, मेरे जीवन-प्रान ॥१॥

प्यारे-प्यारे रटति हौं, निसि-दिन तेरो नाम ।

खान-पान भावै नहीं, बिसरि गए सब काम ॥२॥

प्यारे बिन भेटें कहौ, कैसे पूजै आस ।

हांजी-हांजी के कहै, मिटै न मदन-पियास ॥३॥

प्यारे दरसन देत नहि, ऐसे भए कठोर।

हौं हारी बिनती करत, बार-बार कर-जोर ॥ ४॥

प्यारे तेरे बिरह में, पल-छिन गिनि-गिनि हाय ।

अंगुरिन में छाले परे, तऊ मिले नहिं आय ॥५॥

प्यारे हम जानी अबै, प्रीति इकंगी होय ।

एक न जाने नेह कछु, एक मरै दुख रोय ॥६॥

प्यारे हँसि-हसि के कबौं, नेक करत नहिं बात ।

ऐसी प्यारी पाइ कै, क्यों इतने इतरात ॥७॥

प्यारे कब अपनाइहौ, लगि-लगि गरें सुजान ।

वातन ते मानत नहीं, दूग चञ्चल मन प्रान ॥ ८॥

प्यारे वह दिन कौन सो, है है सुख की खान ।

अंग-अंग अरुझाइ कै, सीतल करिहीं प्रान ॥६॥

प्यारे प्रीति लगाइ कै. मोहि परत नहिं चैन ।

धन भरपन किया, 8ऊ मैन । १०