" द्रष्टव्येषु किमुत्तमं मृगदशः प्रेमप्रसन्नं मुखं,
घ्रातव्येष्वपि किं तदास्यपवनः श्राव्येषु किं तद्व
कि स्वाद्येषु तदोष्ठपल्लवरस: स्पृश्येषु किं तद्वपु-
ध्येयं किं नवयौवने सहृदयैः सर्वत्र तद्विभमः॥"
प्यारे ! प्यारी बात यह, चित दै सुनहुँ सुजान।
कब मिलिहौ सो अब कहौ, मेरे जीवन-प्रान ॥१॥
प्यारे-प्यारे रटति हौं, निसि-दिन तेरो नाम ।
खान-पान भावै नहीं, बिसरि गए सब काम ॥२॥
प्यारे बिन भेटें कहौ, कैसे पूजै आस ।
हांजी-हांजी के कहै, मिटै न मदन-पियास ॥३॥
प्यारे दरसन देत नहि, ऐसे भए कठोर।
हौं हारी बिनती करत, बार-बार कर-जोर ॥ ४॥
प्यारे तेरे बिरह में, पल-छिन गिनि-गिनि हाय ।
अंगुरिन में छाले परे, तऊ मिले नहिं आय ॥५॥
प्यारे हम जानी अबै, प्रीति इकंगी होय ।
एक न जाने नेह कछु, एक मरै दुख रोय ॥६॥
प्यारे हँसि-हसि के कबौं, नेक करत नहिं बात ।
ऐसी प्यारी पाइ कै, क्यों इतने इतरात ॥७॥
प्यारे कब अपनाइहौ, लगि-लगि गरें सुजान ।
वातन ते मानत नहीं, दूग चञ्चल मन प्रान ॥ ८॥
प्यारे वह दिन कौन सो, है है सुख की खान ।
अंग-अंग अरुझाइ कै, सीतल करिहीं प्रान ॥६॥
प्यारे प्रीति लगाइ कै. मोहि परत नहिं चैन ।
धन भरपन किया, 8ऊ मैन । १०