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परिच्छेद ]

कुसुमकुमारी
अठारहवां परिच्छेद
प्रेम की बातें!

"दर्शने स्पर्शने ध्याने श्रवणे भाषणेऽपि वा।
यत्र द्रवत्यन्तरङ्ग स स्नेह इति कथ्यते॥"

(कलाधरः)

खत लिखते समय कुसुम की बुरी हालत होगई थी,-यानी रोते रोते उसकी आंखें मिची जाती थीं, आंसुओं की धारा से खत तराबोर हुआ जाता था और कपकपी के सबब रह-रह कर कलम हाथ से छूट-छूट-कर गिर- गिरजाया करती थी! हाय, प्रेम भी ऐसी बुरी बला है कि जिसका कोई ठिकाना नहीं! कुसुम का खत यह है,- "स्वस्ति श्रीसकल-गुण-निधान,मेरे प्रानप्यारे को मेरा बहुत तरह से गले लगा कर हज़ार-हज़ार प्यार पहुंचे। हे प्यारे ! भला, मुझसे ऐसा कौनसाकसूर हुआहै,जो ऐसी खफ़ग़ी है ? हे जान! आज तीन रोज़ होगया, पर आपसे मुलाकात नहीं होती ! हाय, प्रान! मेरा ऐसा जी घबरा रहा है कि कुछ अच्छा नहीं लगता ! नहीं मालूम कि आपकी तवीयत कैसी है, या क्या सबब है कि आप यो मुझसे रूठकर घर बैठे हैं ! खैर, कुछ भी हो लेकिन अगर इस लौंडी से कुछ खता हुई हो तो उसे माफ़ कीजिए, अपनी तबीयत का हाल लिखिए दयाकर दरसन भी दीजिए और बताइए कि मेरा कसूर क्या है ? हाय ! प्रानप्यारे! मेरे ऐसी नालायक तो आपको लाखों मिल- जायंगी, मगर फिर भी मुझ-सरीखी बेहया, बेगैरत, बेउन्स, बेमुरी- धत, बेदर्द और बेसलोकी चाहनेवाली आपको दूसरी हर्गिज न मिलेगी, लेकिन प्यारे!अभी तो नहीं-मगर तब, जबकि मैं न रहूंगी, मेरी नालायकी आपको हरदम याद आवेगी ! अभी तो आप यों समझते होंगे कि, 'लाखो को चाहनेवाली और फ़क़त दौलत से ही मुहब्बत रखनेवाली बाजारू रंडी के प्यार की हकीकत ही क्या है। 'सो, सच है इसलिए कि प्यारे पहिले तो मुझे फर्सत ही कहा है कि मैं आपको खत लिख कमों कि लाखों खत मुझे रोजही