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स्वर्गायकुसुम

[सोलहवा

सोलहवां परिच्छेद
इससे बढ़कर कौन सी खुशी है!

"अकृत्रिमप्रेमरसा विलासालसगामिनी।
असारे दग्धसंसारे सारं सारङ्गलोचना ॥"

(भारविः)

तीन महीने के बाद बसन्तकुमार ने आरोग्य-स्नान किया। भला, उस दिन कुसुम की खुशी का क्या ठिकाना था! उसी दिन उसने भी विधि-पूर्वक स्नान करके नया जोड़ा पहिरकर अपने प्यारे को गले से लगाया। उस दिन द्वारपर नौबत बजने लगी; सब नौकर-चाकरों को कपड़े बंटने लगे, दान, पुण्य और खैरात की धूम मच गई: और ब्राह्मण-भोजन तथा कंगलों के कोलाहल का वारापार न रहा । उस दिन-दिन- भर कुसुम ने उपवास-व्रत किया, और सायंकाल के समय बड़े धून-धाम से श्रीसत्यनारायण बाबा की कथा हुई। निदान, बड़े उमंग के साथ तरह-तरह के आनन्द मनाए गए, डॉक्टर साहब को बहुत ही गहरी बिदाई दी गई और भैरोंसिंह को जन्मभर के लिये नौकरी से स्वाधीन कर दिया गया, तथा उसकी तनखाह दुचन्द कर दी गई। उस दिन बड़ी उमङ्ग के साथ बसन्तकुमार ने कुसुम को प्यार से गले लगाकर कहा.-"क्यों, प्यारी! अगर मैं मर गया होता तो क्या होता?" यह सुन कुसुम ने त्योरी बदलकर उसे दो गुलचे लगाए और कहा,-" पत्थर पड़े, इस बोली पर हाय, प्यारे! अगर तुमने आज पीछे फिर कभी ऐसी खोटी बात मुहं से निकाली है तो मैं अपनी जान देडालंगी।" बसन्त,-(मुस्कुराकर)परन्तु, मैं यह जानना चाहता हूँ कि मेरे मरने पर तुम क्या करती ?" यह सुन और भौवें तानकर वह वहांसे चली जाने लगी. पर बसन्त ने हंसफर उसका हाथ थाम लिया और कहा 'मेरी बात