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स्वर्गीयकुसुम

[तेरहवा

दबे-पैर दूसरे कमरे में गई और वहां उन-दोनों में दो बातें होने लगी,- डॉक्टर,-" आपको यकायक यहां देखकर मेरे ताज्जुब का हह न रहा! आप क्योंकर यहां आई ?' कुसुम,-'इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं है; और सुनिये साहब ! मेरी रूह तो यहां पर आपके कब्जे में पड़ी हुई है, फिर मैं क्योंकर यहां आने से बाज रह सकती थी!" डॉक्टर,-" मगर आपने बहुत जल्दी की, क्योंकि आपको ज़रा और सन्न करना था।" कुसुम,-" जनाब! सब्र की भी कोई हद्द होती है! बस, अब आप मेरी ओर से बेफिक्र रहें और रोगी की सेवा-टहल के लिये मुझे भी अपना एक मातहत समझे। आप सब सोच सकते हैं कि इस रोगो की जितनी और जैसी सेवा लाख रुपये देने पर भी दूसरे से न होसकेगी, उससे कहीं बढ़कर मुझसे होगी; लिहाजा आप मेरे आने से अब किसी खराबी का होना न समझे।" डॉक्टर,-(ताज्जुब से) “मगर साहब ! कल आपने जिस घबराहट और जोश से भरी हुई बातें की थी, आज उससे बिलकुल उलटा मैं देखता हूं,-यानी आज शान्ति और गंभीरता आपकी बातों से टपक रही हैं ! यदि इसी तरह बराबर आप अपने दिल को मजबूत करके उसे अपने कब्जे में रखसके तो सचमुच रोगी की बहुत कुछ भलाई होसकती है।" कुसुम,-" बेशक, आपने मुझसे जहां तक आशा की है, उससे कहीं बढ़कर पाइएगा; और काल का हाल आप न पूछिये, क्यों कि उस वक्त नए सदमे की चपेट से सचमुच मैं विल्कुल पागल और बदहवास होरही थी। खैर आज जब मैं जागी, तो बहुत देर तक मन ही मन सोच-विचार-कर अपनी किस्मत का फैसला मैंने इसी जखमी के हवाले कर दिया और तय मैं अपनी एक नमकहलाल लौंडी के साथ भेस बदल-कर पिछवाड़े के दर्वानी से निकलकर चुपचाप पैदल ही यहां चली आई: क्यों कि मुझे उस लौंडी से रोगी का बाग में रहना मालूम होचुका था । जनाब, सच तो यों है कि अब बिना दिल को मजबूत किये काम न चलेगा: अगर मैं सब्र और दिलेरी न करती तो शायद यहा तक आपकी मर्जी-वगैर काबाको मजबूत कद यहा से