डॉक्टर,-" नहीं: मगर, वाह ! बाबूसाहव भी कैसे बुद्धिसागर है कि उन्होंने पहिले ही से इस बात को समझकर ऐसी आज्ञा दी!” भैरोंसिंह,-"वे देवता हैं; और सच पूछिए तो उनकी आज्ञा के बल से ही हमलोग बीबीसाहिबा को रोकने में समर्थ भी होंगे। अच्छा तो, यहां आप इनकी मरहम-पट्टी करिए और तब तक मैं वहां जा कर उन्हें बातों में उलझाऊं कि जिसमें मेरे जाने के पहिले ही उन्हें इस खबर के सुनने या यहां आने का मौका न मिले।” इस बात को डॉक्टर ने सराहा, तब फिर भैरोंसिंह ने कहा.- "मगर, जब तक आप खुद चलकर उन्हें एक बार वाबूसाहब का हुक्म सुनाकर न धमकावेंगे. तब तक न तो वह बिना आए माने ही गी, और न हमलोग उन्हें बरजोरी रोक ही सकेंगे।" डॉक्टर,-" हां! हम एक घंटे के अंदर आते हैं, तब तक तुम उन्हें बातों में उलझा रक्खो; पर वे उलझाने-वाली बातें कैसी होनी चाहिएं, यह तो तुम्हींको सोचनी पड़ेंगी। भैरो सिंह,-"हां! वह सब मैं सोच लूंगा, पर फकत उन्हें रोक नहीं सकूँगा तो भी एक घंटे तक तो मैं ज़रूर ही उन्हें अपनी बातों के लच्छे में उलझा रखूंगा।" यो कहकर भैरोंसिंह ने आकर पहिले तो धीरे से सब नौकर-दाइयों से बसंत का हाल कह सुनाया और फिर अपना, डॉक्टर का और बाबूसाहब का मतलब भी समझादिया। इसके बाद फिर कुसुम से उसने जिस ढंग से बातें की, उसे तो हमारे प्यारे पाठक पढ़ ही चुके हैं। भैरोंसिंह बहुत दिनों से कुसुम के यहां रहता था; वह बहुत ही नेक, नमकहलाल, चतुर और सच्चा आदमी था। वह कुसुम को बेटी की तरह प्यार करता था और कुसुम भी उसकी बड़प्पन के साथ कदर और इज्जत करती थी। निदान, फिर कैसे अच्छे मौके पर डॉक्टर ने कुसुम के पास पहुंचकर किस ढंग से बातें की. इसे भी हम ऊपर लिखही आए हैं। यह बात सही थी कि यदि कुसुम यकायक बसंतकुमार की उस हालत को देखती तो अजब नहीं कि वह खुद अपनी जान दे बैठती, या ऐसा कुछ कर गुज़रती, जिससे जान जाने की बारी आजाती बस, इसी ख़याल से डॉक्टर ने इस ढंग से उससे बातें की कि जिससे बराबर उसे सदमें और गुस्से में ताव-पेच खाना पड़ा, जिसका नतीजा यह हुआ कि पहिले तो वह आपही वेहोश हुई थी और फिर पीछे कई घंटों के लिये औषधि पिलाकर जान बूझकर बेहोश करके पलंग पर डाल दी गई थी।
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