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परिच्छेद]
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कुसुमकुमारी
ग्यारहवां परिच्छेद
विकलता


हतास्मिक गच्छामि किं करोमि ब्रवीमि किम् ।
चरामि दीनाहं बिलपामि मरामि कम् ॥
यार्थे जीवितेशस्य प्राणाश्चार्थानिमानहम् ।
त्सृजामि सोत्कण्ठ केचित्सोवयन्तु तम् ॥"

(सावित्रीचरित्रे)

सुम ने डाकुर को सिर से पैर तक देख और त्योरी बदलकर कहा,-"मैं इस वक्त किसीका भी हुक्म नहीं मान सकती; क्योंकि वह मेरा प्यारा है, इसलिये मैं उसे अभी देखेंगी! हाय ! क्या, दुनियां के सभी उस होगए कि मेरा प्यारा तो मौत के पंजे में गिरफतार "सके पास जाने से रोको जाती हूं !" -"मगर बाबूसाहब ने भी तो ऐसा हुक्म कुछ समझ- दिया होगा! ,-" पर इस वक्त मुझे इस हुक्म के मानने की कोई --" तो आप जान-बूझ कर अपने प्यार की जान लिया? सुनते ही कुसुम कांपकर कुर्सी पर बैठ गई और बेबसी मे बोली,-"यह क्यों ?”

-"यही कि इस वक्त अगर आप उस जखमी आदमी के

तो ज़रूरही रोना-चिल्लाना शुरू करदेंगी। अगर ऐसा किया और उसकी बेहोशी ज़रा भी दूर हुई, तो फिर उसके जान जाने में कोई शक नहीं रहेगा; लिहाज़ा आप तब-तक ने पाएंगी, जब-तक कि उसके घाव के सव टांके मजबूत और वह भी इस काबिल न होलेगा कि आपको बेकरारा कर सके। -(कुछ देर तक सोचकर) अगर यह बात है और आप