पन रहने दो, देखो-उस राजा के यहां बसंतपचमी की मजलिस
है, दस दिन नाच होगा। कल दीवानजी ने तुम्हें बुलाया भी था,
पर तुम न गई और जब वे हा आने को तैयार हुए तो सिर-दर्द का
बहाना करके उन्हें भी आने से रोक दिया। भला, यह भी कोई
बात है ? दस दिन की मजलिस है, ढाई सौ रुपये रोज़ मिलेंगे और
खर्च-बर्च, इनाम-एकराम और फर-फ़रमायश अलग!!!"
कुसुम,-" उस्तादनी! मुझे अव नाचना-गाना, या रंडी का
पेशा करना मंजूर नहीं है।"
उस्ताद,― “सो तो लच्छन ही दिखाई देते हैं ! खैर, जो अच्छा
लगे, सो करो! देखो, राजामाहब पांच हजार रुपए तक तुम्हारी
मिर-ढंकाई का देना चाहते हैं, अगर वहां चलोगी और राजा को
उल्लू बना लोगी तो पांच हज़ार क्या, पांच लाख भी ले सकोगी; और
तब हमलोगों को भी चार पैसे मिल रहेगे।"
कुसुम -(चिटककर)" सुनो, उस्तादजी ! तुम मेरे बाप के
बराबर हो, इसलिये मैं हाथ जोड़कर तुमसे बिनती करती हूं, कि
बस! अब आज से ये वाहियात बातें मेरे आगे मत करना । भाड़ में
जाय सिर और चूल्हे में जाय ढंकाई ! सुनो, अब मुझे यह सब कुछ
भी नहीं करना है, क्योंकि रामजी की दया से खाने को बहुत है; बस!मुझे अब और भी पाप की नाव पर बोझ लादना मंजूर नहीं है।"
उस्ताद,-"खैर, जो भला जान पड़े, सो करो, हमें क्या!
हाय, जबसे उस जादूगर छोकरे का साथ हुआ है तभी से तुम्हारी
समझ पर पत्थर पड गए हैं ! वह आफ़त का मारा कम्भकत आप
तो कौडी का तीन हई है तुम्हें भी अपनी ही तरह जब भीख मगा
लेगा. तब ही छो गा!"
कुसुम,-(भौ तानकर)"बस, उस्तादजी, बस! खबदार.
अगर आज पीछे कभी भी उनको शान में मेरे आगे जवान खोल है
तो अच्छा न होगा! तुम मेरे उम्ताद हो, इसलिये मुझे चाहे
हजार गालियां दे लो, या लाख जूती मार लो; पर जो उन्हें कुछ
खोटी-खरी कहोगे तो मैं बहुत बुरी तरह पेश आऊंगी।"
यह सुनते ही वह सपाई, जिसका नाम झगरू उस्ताद था.
उठकर यह कहता हुआ चला गया कि,–"ले, आज से मैं तेरे
दर्वाजे पर थुकने भी न आऊगा।
कुसुम ने भी क्रोध से कहा,―"बहुत अच्छी बात है.
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कुसुमकुमारी