स्थगायकुसुम । सातव
- सातवां परिच्छेद.
अवश्य भाविनो भावा भवन्ति महतामपि ।
नग्नत्वं नीलकण्ठस्य महाहिशयनं हरेः॥"
(हितोपदेशः) फिर कुसुमकुमारी ने उस भोजपत्र के टुकड़े को बसंत- कुमार के हाथ में दिया, जिसे पढ़कर वह हक्का-बक्का- सा हो कुसुम की ओर देखने लगा!
कुसुम ने कहा,-"अब प्यारे ! तुम्हीं सोच सकते हो
कि जब मैंने इस पुरजे को पढ़कर अपना हाल जाना होगा,तब मेरे दिलपर कैसो बीती होगी! हाय ! ऐसी चोट मेरे दिल पर बैठी है, कि उसकी दवा विधाता की दृष्टि में हई नहीं ! क्या ही अच्छा होता, अगर मैं पैदा होते ही मर गई होती; या जीती ही रहती तो इस हाल को न जानती । अब तुम्ही बतलाओ कि मेरा जीना मरने से भी बदतर है या नहीं?" बसंत ने लंबी सांस लेकर कहा,-" प्यारी! तुम्हारे कलेजे की जहां तक बड़ाई की जाय, थोड़ी है; सचमुच यह तुम्हारा ही काम था कि तुम इस हाल को जानकर भी अभी तक जीती हो; भई ! मैं तो इस सदमें की चोट खाकर कभी न जीता रह सकता।" इस उपन्यास के रसिक पाठक यदि उस भोजपत्र पर के लिखे हुए हाल को जानना चाहें तो उनके लिये नीचे हम उसकी नकल ज्यों की त्यों कर देते हैं,- “ यह लड़की, जिसका नाम चंद्रप्रभा है, बिहार के राजा कर्णसिंह ने, जबकि यह छः महीने की थी, श्रीजगदीश की भेंट की, जिसे एक पंडे ने पाला। इसके गले में राजा कर्णसिंह ने एक चांदी की तखती डालदी है, जिसमें उन्होंने इस कन्या को जगदीश की भेंट करनी स्वीकार की है। इस तखती की पीठ पर