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परिच्छेद

कुसुमकुमारी
इस पर बसंत ने उसके गालों को चूमकर कहा,-"यह लो!"

तब कुसुम ने हंसकर उसके गालों में दो गुलचे लगाए और कहा,-"अच्छा, सुनो, तब मैंने ढोलक-सरीखे तावीज़ को तोड़कर और उसमें से एक भोजपत्र के परचे को निकालकर पढ़ा, पर उस चांदी की तख्ती को आज तक मैं न पढ़ सकी कि उसमें क्या लिखा हुआ है ! तौ भी उस परचे के पढ़ने ही से मेरी बुरी हालत होगई, मारे रंज के पेट के दर्द का बहाना करके मैंने तीन दिन तक अन्न- जल न किया और उसी दिन इस बात की कसम खाई कि,― 'अब चाहे जान जाय तो भले ही जाय, पर जीते जो रंडी के नाकिस पेशे को तो मैं कभी न करूंगी; और या तो योंहीं मर ही जाऊंगी, या किसी ऐसे शख्स के साथ आशनाई कर लूंगी, जिसके साथ सारी उमर कट जाय और दूसरे आदमी को यह तन न दिखलाना पड़े, लेकिन जो ऐसा न हुआ तो किसी न किसी तरह अपनी जान देकर इस पाप-रूपी-नरक-रूपी-गंदे नाले से अपने तई बचाऊंगी।' इसी तरह मेरे दिन बीतने लगे।" इतना सुनकर बसंत फड़क उठा और बोला, "प्यारी ! तुम धन्य हो ! आज मैंने तुम्हारा मतलब समझा ! इसीलिये उस दिन नाव पर कटार लेकर तुमने मुझसे बरजोरी प्रेम किया था?" कसुम,-" खूब समझे! प्यारे! जरा सोचो तो सही कि एक तो तुमने मेरी जान बचाई, दूसरे इस तन को भी तुमने पानी में देखा; ऐसी हालत में अगर मैं तुम्हें छोड़ दूं, तो दो बातों में से एक ही हो सकती है, अर्थात् या तो मैं अपनी प्रतिज्ञा छोड़कर दूसरे के हाथ अपना शरीर बेचूँ, या अपनी जान देदूँ ! सो, अगर तुम मुझे कबूल न करते तो यही होता कि अपनी सारी दौलत बर्बाद करके या किसी धर्म में लगाकर मैं अपनी जान देदेती; और याद रखो,-अगर कभी तुमने मुझे अपने कदमों से अलग किया तो मेरी हत्या तुम्हारे सिर चढ़ेगी।"बसंत ने मुस्कुराकर कहा,-" इस जबरदस्ती का भी कुछ ठिकाना हैं!” कुसुम,―( उसे चुटकी ) और नहीं तो क्या "