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समर्पण काशीनिवासी पण्डितवर श्रौलश्रीयुक्त श्रीजगन्नाथ- प्रसादत्रिपाठी, ( मारा-प्रवासी). मित्रवर, कदाचित् प्राप उस कार्तिकी पूर्णिमा को, जिस दिन कि मापने इस कहानी के बीज को हमारे हृदयक्षेत्र में बोया था, अभी तक भूले न होंगे ! तो फिर जब कि इस उपन्यास के लिखे जाने के मूल कारण आप ही हैं, तब इस पर किसी दूसरे व्यक्ति- विशेष का अधिकार कब होसकता है ? ऐसी अवस्था में केवल यह कह कर कि,-"अपनी प्रिय वस्तु आप ही अङ्गीकार कीजिये,"-इस पुस्तक को आपके अर्पण करके आजहम सुदीर्घ-काल के प्रतिज्ञा- पाश से अपने को मुक्त करते हैं। अभिन्न-हृदय, श्रीकिशोरीलालगोस्वामी