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परिच्छेद]
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कुसुमकिमारी

परिच्छेद ] के प्रधान ताल्लुकेदार बाबू कुंवरसिंह के यहां जमा थे, जिसका सूद चार आने सैकड़े के हिसाब से बराबर हर तीसरे महीने उसे मिला करता था। जिस समय की घटना पर यह उपन्यास लिस्ना गया है, उस समय आरा में बाबू कुंवरसिंह का (१) बड़ा दबवा था। वे बड़े बीर, महादानी, परमदयालु, पूरे सत्यनिष्ठ और यथार्थ क्षत्रियों के गुणों से भूषित थे। बिहार में उनके समान महाराज डुमरांव आदि महाराजों का भी उस समय उतना दौरदौरान था। उनके समय मे आरा की बस्ती बहुत हीछोटी और साधारण थी, रईसों के मकान कच्चे थे और गाड़ी-घोड़े कोई नहीं रख सकता था । उस समय में भी दो-एक रईस, जो कि बाबू कंवरसिंह के बड़े ही कृपापात्र थे, उनके पक्के मकान भी थे और उनके यहां गाड़ी-घोड़े भी थे, पर इतने पर भी उन लोगो को यह मजाल न थी कि वे लोग बाबूसाहब के बसाए हुए खास बाज़ार (वाबूबाज़ार) मे गाड़ी पर चढ़ कर जासकें। उस समय यह दस्तूर था कि सर्वसाधारण में कोई भी टोपी पहनकर उस बाजार में नहीं जासकता था; चाहे कोई कैसा ही आदमी क्यों न हो, पर या तो वह नगे सिर हो, या पगड़ी पहिरे हो, तब बाबूबाज़ार में जा सकता था। उस समय बाबूसाहव की पूरी कृपा के कारण कुसुम की माँ का मकान भी पका था और उसके यहां गाड़ी-घोड़ भी थे; और वह रडी होने के कारण इतनी ढीठ भी होगई थी कि वासाहव की ड्योढ़ी तक अपनी गाड़ी लेजाती थी। बाबूसाहब की कृपा ही के कारण वह पूरी निडर और ढीठ होगई थी, शहर और उसके गांववाले असामी भी, उससे थर-थर कांपते थे कि, "जिसमें उसकी नज़र बदलने पर बापूसाहब के कोप में किसीको जलना न पड़े।' इससे यह न समझना चाहिये कि वादूसाहब से और कुसुम की मां से किसी तरह का गुप्त सरोकार था। नहीं, वे बड़े ही सच्चरित्र और साधुपुरुष थे। हां, कृपा उनकी उसपर (१) कंवरसिंहनामक उपन्यास में हमने बाबू कंवरसिंह का पूरा पूरा हाल लिखा है