पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१९४

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परिच्छेद) फुसुमकुमारी। १८५ सामने मैं खड़ा रहूं; खूब मन भरकर देख लो ! " कुसम,-"हां! हां! जग खड़े रहो!" वसन्त हंसते-हंसते सचमुच उसके सामने खड़ा रहा और कुसुम पलक-विहीन नयनों से उसकी ओर देखती रही! उसके गड-ढङ्ग-देखकर बसन्तकुमार ने उसके मन के असली भाव का न समझा और हंसफर कहा,-"प्यारी! तुम्हारी इम अदा पर मुझे एक गजल याद आया है !" कुसुम,-- ऐमा ! तो उसे भी सुनादो।" यह सुन बसन्न वह ग़जल पढ़ने लगा, " हरयक्त नेरी सूरत, ऐ जान मामने है। हर लहजा सामने है. हर आन मामने है। दिल चाक चाक करके, मुझसे यः पूछने हैं। दिल है अगर्चे तेग, पहचान सामने है। घादा किया हो पृग, अच्छा कसम तो खाओ। पत्रो तो हाथ इस पर, 'यह जान' सामने है। मुझसा न होगा कोई. दोजान रखने वाला। एक जान घर में मेरे, एक जान सामने है। यह सुन और मकर कुसुम ने बसन्तकुमार को अपने कलेजे से लगाकर उसका मुह चूम लिया । फिर थोड़ी देर पीछे बसन्त उमसे बिदा होकर घर गया और धीरे धीरे उसके पैर की आहट मिट गई ! जय तक वह दिग्बाई दिया, कम म वाग की रविश पर खडी खड़ी उसे देखती रही, फिर उसके दूर जाने पर मह कमरे में चली आई और तड़प कर और तकिये पर मिर घर कर बहुत देर तक रोती रहीं; इसके बाद बसन्त की तस्वीर के सामने बैठ फर देर तक उसे निहारती रही; अनन्तर उसने नम्वीर में अपने हदय, माथे और नेत्रों को लगाया, उसे चूम लिया, उस पर बाख्ने फेरी और फिर देवा ! फिर उठ कर वह घबराहट के साथ क छ लिखने लगी! अनेक बार आंसू से काग़ज़ भीज गया. पर फिर भी वह लिखने लगी! कई बार कागज के बिगड़ जाने से उसके लिख में बाधा पड़ी, पर अन्त को उसने लिखकर एक चिट्ठी पूरी की। उस समय रात के दो बजे थे।