स्वर्गायकुसुम [चाया चौथा परिच्छेद. AM YeF प्रतिज्ञा " यन्मनोरधशतैरगोचर, न स्पृशन्ति च गिरः कवेरपि। स्वप्नवृत्तिरपि यत्र दुर्लभा, लीलयैव विदधाति तद्विधिः ॥" (सुभाषितम्) HARYस दिन. वहीं, मेले से बाहर एक डेरा किराए पर लेकर कुसुमकुमारी रही। उम्मने अपनी एक अगूठी उसी दिन पचास रुपए पर बेंच डाली थी। वसंत जिस LEPORT किश्ती पर आया था, बहुत खोजने पर भी उसका पता उसे न मिला। तब वह कुसुम के डेरेपर लौट आया और उस की जो कुछ चीज़ थो, वह सब किश्नी ही पर रह गई। दयावान सिविलसर्जन साहब ने एक साड़ी कुसुम को पहिराई थी और अपने कोट, पतलून और टोपी वसंतकुमार को दी थी। अभी तक के ही कपड़े उन वेचारों के बदन पर थे; पर अव कुसुम ने अपने और बसंत के लिये बीस-पच्चीस रुपए के जरूरी कपड़े खरीदे और एक अच्छी किश्ती किराए करके शाम के वक्त वसंत के साथ पटने की ओर वह चली। उस समय नाव के भीतर निराला पाकर कुसुम को वसंत के साथ अकेले में बातचीत करने का मौका मिला। उसने बड़ी प्यार-भरी आंखों से बसंतकुमार की ओर देखकर कहा,-"क्यों साहब ! क्या अब मैं अपनी जान बचानेवाले का शुक्रिया अदा कर सकती हूं?" बसंत, (मुसकुराकर ) " नहीं, इस फ़जल यात की कोई जरूरत नहीं है।" कुमुम,-"अच्छा. न सही. जाने दीजिए और यह बात फजल ही सही मगर क्या परमेश्वर के लिये आप मेरी एक अर्ब कमूल
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