१८० स्वगायकुसुम । (ततालोसा करती है, पर फिर भो मेरा मन नहीं मानता! भला, वह रडी होकर मेरे लिये इतनी उदारता क्यों खर्च करनी है ? यह तो नहीं समझ पड़ता ! वह रंडी हो, या कोई हो, स्त्री तो है ! जब मैं ही उसके पास तुम्हें भेजने मे राजी नहीं होती, तो वह तुम्हें मेरे पास भेजकर कैसे सुखी होती होगी ? खैर, जो हो, एर मुझे उसका विश्वास नहीं है !" यहां पर हमारे पाठकों को समझ रखना चाहिए कि गुलाव को कुखुम और वसन्त के प्रेम वा विवाह का, या कुसुम की जीवनी का कुछ भी रहस्य नहीं मालूम था, और न वह यही जानती थी कि,- 'कुसुम मेरी सगी बहिन है।' बसन्त ने कहा,-"उसने तो अभी तक तुम्हारे साथ अविश्वास का कोई काम ही नहीं किया है ? " गुलाच,-"कोई न कोई उसका खोटा मतलब अवश्य होगा!" वसन्त,-"कुछ भी नहीं है।” गुलाब,-"तब वह क्यों इतना चाव करती है ?" बसन्त,-"उसका मन , वह मुझसे और तुमसे भी प्रेम करती है ! वह 'स्वर्गीय-कुसुम' है ! " गुलाब.-"ऐसा मन तो देवताओं का भी नहीं होता!" बसन्त,-"यह तो तुमने बहुत ही ठोक कहा ऐसा मन तर देवताओं का भी नहीं होता! " गुलान,-"तो, अब तो मैं तुम्हें न जाने दूंगी।" बसन्त,-"जो कुछ हो, पर मैं तो जरा जाता हूं।" गुलाच.-"तो मैं अन्न क्या कहूं! " बसन्त,-"प्रिये ! वह ये सब बातें सुनकर मन मे क्या कहेगी?" गुलाब,-"कहा करे ! इस डर से क्या कोई स्त्री अपना पति छोड़ देगी?" बसन्त,-"मैं छोड़ने को कहता हूं, या कोनसी बात होरही है?" गुलोब,-"और नहीं तो क्या ? अब उसके पास जाना क्या अच्छी बात है ? मेरे पीहर के कितने लोग कितनी तरह की बातें कहते हैं, जिन्हें सुन-सन-कर मुझे कितना दुःख होता है, इसे तुम क्या जानो !" यह भान गुलाबई ने कुछ झूठ नहीं कही धा यान यह थी कि
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