पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१७७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६८ स्वगायकसुम । (ग्नवालासवा घोर कलिकाल में अब देवताओं के निमित्त कन्याओं का चढ़ाया जाना एक दम से बन्द कर दिया जाय तो अच्छा हो। पण्डाजी को बातों से कुसुम बहुत ही प्रसन्न हुई और कहने लसी,-"मैं आपको धन्यवाद देती हूँ कि अब आपने बेचारी कन्याओं की दुर्दशा देखकर उनपर तर्स खाया! श्रीजगदीश करें, वह दिन जल्द आवे, जब इन आपदाओं से अभागिन कन्यागों को छुटकारा मिले।" त्र्यम्बक ने कहा,-" बेटी, चन्द्रप्रमा! यह तू निश्चय जान कि अब जैसा काल चला आरहा है, उससे यही निश्चय होता है कि, 'अथ इस "देवदासी प्रथा के एक दम से मिटजाने में कोई सन्देह नहीं है।'तेरे पिता ऐसे उत्तेजित और ऋद्ध हुए हैं कि, 'बे इस चाल के बन्द कराने में कोई बात उठा न रक्खेंगे। तेरा और अपना परिणाम देखकर मुझे यही विश्वास होने लगा है कि, 'भक श्रीजगदीश भी इस प्रकारकी,--अर्थात कुमारी कन्याओं की भेंट लेना और उन पर घोर पैशाचिक अत्याचार होने देना नहीं चाहतेतू विश्वास कर कि. 'अब यह अन्धेर बहुत दिनों तक न चलसकैगा, और थोड़े ही दिनों में इसका नामोनिशान मिट जायगा!' खैर, मैं तुमसे मिल लिया, तूने अपनी सुशीलता और उदारतासे मुझे क्षमा भी कर दिया; इसलिये अब मैं तुझसे विदा होता हूँ और जगदीश्वर से प्रार्थना करता हूं कि, 'वे तुझे अपनी निज सम्पत्ति जान कर सदैव तुझ पर दयादृष्टि बनाए रक्खें।" कुसुमकुमारी ने कहा,--"अक आप कहां जायगे?" ध्यम्बक ने कहा, "मुझे कोई आगे-पीछे तो है ही नहीं, कि जिसकी ममता मुझे बांध सकेगी; इस लिये तेरे दुःखदायी परिणाम को देखकर और अपने यजमान या तेरे पिता राजा कर्णसिंह की तरह फटकार खाकर मुझे ऐसी ग्लानि हुई है कि अब मैं अपना काला मंह किसीको भी नहीं दिखलाया चाहता, सस, अब मैं काशी जाऊंगा और अपनी ज़िन्दगी के बाकी के दिन वहीं पिताऊंगा। पण्डाजी की बातें सुनकर कुसुम बहुत ही उदास हुई और कहने लगो, “पपटाजी । जो कुछ होगया है उस पर अब भार ध्यान दीजिए और भोजगदीश की सेवा करक मपने जीवन को