स्वगायकसम । (समपासासा varnawar तो दे:सुन, तेरे पिता निःसन्तान थे, और उन्हें सन्तान की बड़ी चाहना थी; ऐसी अवस्था में लोगों के बहुत कुछ कहने-सुनने पर उन्होंने श्रीजगदीश से यह प्रार्थना की थी कि, 'यदि मुओं कोई सन्तति होगी, तो उसे मैं हापके चरणारविन्दों में नेट करदंगा।' इस पर तुझे खूब ध्यान से बह पात विचारनी चाहिये कि तेरे पिता की यह प्रार्थना सच्चे हदय की थी, जिसे श्रीजगदीश ने स्वीकार किया, जिसके प्रमाणस्वरूप श्रीजगदीश के चक्र की छाप अपने बाम सङ्ग में लेकर तू पैदा हुई ! इससे यह बात निर्विवाद सिद्ध होती है कि, 'श्रीजगदीश ने तेरे पिता की प्रार्थना स्वीकार कर तुझे अपनो घामाङ्गिनी बनाया था, इसमे प्रमाण वही चक को छाप है। फिर इसके बाद देवोत्तर-सम्पत्ति जानकर भी मैने चुनी पिशाची के फेर में फंसकर तुझे उसके हाथ बेचडाला, इसमें दो प्रकार के पाप मैंने किए,-अर्थात् एक तो देवोत्तर-सम्पत्ति पर हाथ चलाना पाप हई है, उसपर कन्या का विक्रय करना तो और भीमहापाप है। इन दोनों पापों के कारण मुझे श्रीजगदीश ने यह दण्ड दिया कि तेरे एवज़ में चुनी से जो दोहज़ार रुपए मुझे मिले थे, उन्हें चोर चुरा लेगए और उन हपयों की 'हाथ में मेरा खून ऐसा गरम हुआ कि सारे बदन से कोढ़ फूट निकला। इस प्रकार का दण्ड मैने अपने कर्म के फलस्वरूर पाया, उस पर तुर्रा:यह कि मैं निस्सन्तान हूँ और इस संसार में मेरे आगे-पीछे, सिवाय जगदीश के, और कोई नहीं है! यधपि तू श्रीजगदीश की चक्रछाए पाकर उनकी वामागिनी हुई थी, परन्तु किसी प्राक्तनकर्म के अनुसार तुझे वेश्या के घर इतने दिनों तक रहना मी बदा था, परन्तु तू श्रीजगदीश की निशसम्पत्ति थी, इसलिये वेश्यावृत्ति करने से बची और वसन्तकुमार के साथ विवाह करके सती-साध्यो-पतिव्रतामों की पंक्ति में मिलगई । इधर तेरा तो तेरे कर्मानुसार यह परिणाम हुआ और उधरतेरे पिताने श्रीजगदीश की कृपा से पुत्र का मुख देखा! इतने कर्म-जजालों में घूरने या घुमाए जाने पर भी तूने अपनी सहोदरा भगिनी कोस्वयम् अपनी सौत बनाया !! अव उधर ध्यान दे, कंबरमोतीसिंह या भैरोसिंह का जो कुल परिणाम हुआ, तथा पिशाची चुन्नी की जो कुछ गति हुई, वह पास तुबसे छिपी हुई नहीं है। मोतीसिंह तेरे कौन थे यह दू जामती दी है और समकी दौलत पाकर उसे सूने का
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