पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१७२

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परिच्छेद ) अपने अपने कर्मों के अनुसार, मुझे या तुझे, जो कुछ फल भोगने थदे थे, वे आखिर भोगे क्योंकर जाते ? जहां तक मैंने इन बातों पर विचार किया है. मुझे यही सिद्धान्त जान पड़ा है कि यह जगत् कर्ममय है और अपने अपने कर्मानुसार जीव जन्म-जन्मान्तरों में नाना प्रकार के कर्मभोग भोगा करते हैं। इन कर्मभोगों में बहुत सं लोग प्राक्तन-जन्म-संस्कार-वश परस्पर मिलजाते हैं और इसी प्रकार इस कर्ममय जगत में अपने अपने सञ्चित, प्रारब्ध और क्रियमाण कर्मों का फल भोगा करते हैं । यह कर्मभोग सनातन से चला आ रहा है और धारावाही न्याय' के अनुसार बराबर अनन्तकाल- पर्यन्त चलता रहेगा। इन कर्मबन्धनों से वे ही छुटकारा पासकते हैं. जो निष्कासकर्म करें,-अर्थात् इस संसार में रहकर जो कुछ कर्म वे करें, उनमें न तो आसक्त हो. और न उनके फल की आकांक्षा रक्खें; बग्न जो कुछ वे करें, उसका फल परमेश्वर को समर्पित करदें। ऐसे निष्ठावान जो कर्मयोगी है, उन्हींका उद्धार इस कर्ममय जगत से होमकता है. दूसरे का कदापि नहीं होसकता।" त्र्यम्बक के अद्भुत पाण्डित्यपूर्ण इस कर्मवाद को सुनकर कुसुम- कुमारी दङ्ग होगई और देर तक उसकी ओर निहारती रही! कुसुम के चित्त की उस समय जैली अवस्थाथी, उस पर त्र्यम्बक ने अच्छी तरह ध्यान दिया और यों कहा,-"चन्द्रप्रमा! जगदीश्वर की कृपा से तू अत्यन्त बुद्धिमती पैदा हुई है, इसलिये मैं यहां पर इस सर्ममय जगत् के कर्मों की चिलक्षाना का कुछ दृष्टात तुझे देता हूं. उसे तू ध्यान-पूर्वक सुन और उसपर भलीभांति विचार कर। यदि तू मेरे दिए हुए दृष्टान्त पर अच्छी तमह ध्यान देगी, तो तुझे यह बात भलीमाँति विदित होजायगी कि, 'यह कर्ममय मसार बडा विलक्षण है और इसमे न कोई किसी का शत्रु है. मित्र, और न उदामीन: बस, गुसाई तुलसीदासजी ने बहुत ही सही कहा है कि, “कर्म प्रधान विश्व करि राखा । जो जस किया मो तल फल चाखा।' और कविवर वृन्द ने भी क्या अच्छा कहा है कि,-को दुख, को सुख देत है. देन कर्म भकझोर । उनी सबै आपुही, धुजा पवन के जोर' । इतना कहकर धाडी देर के लिये पद ( यम्बक ) ठहर गया और फिर यो कानेगा, 'भा तू मेर दृष्टान्सों पर अरा ध्यान