पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१७१

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१६३ स्वगायकुसुम। (अमचारसवा के अर्पण कर दिया तो इसमें उन्होंने अनुचित क्या किया? परन्तु हां, बात यह है कि, देश, काल और पात्र का विचार करके ही धर्माचरण करना चाहिए । बस, इस बात पर तुम्हारे पिता ने कुछ भी ध्यान न दिया, यही उनका अपराध है। उन्हें उक्ति था कि जैसे उन्होंने तुम्हें जगदीश की भेंट किया था, वैसे सदा तुमपर ध्यान रखते; यदि ऐसा वे करते तो तुम्हारी यह दशा कदापि न होने पाती और मैंभी इस महा उन दण्ड का भागी न बनता। अस्तु, क्या किया जाय,-जो भवितव्य है, वह बिना हुए, नहीं रहता है" यह बात सुनकर कुछ देर तक कुसुम चुप रही, फिर उसने कहा,"आपका यह कहना सच है कि, 'होनी हुए चिन रहती नहीं है।' परन्तु फिर भी जी नहीं मानता और यह कहना ही पड़ता है कि, 'जैसे यह संसार बडा विलक्षण है, वैसे ही इसके अनानेवाला परमेश्वर भी बड़ा ही विलक्षण है !!! क्यों कि उसने तो सब बोझ संसारी जीवों पर लाद कर अपना छुटकारा किया कि, जो जैसा करै, वह वैसा पावै,' पर उस ( ईश्वर ) से यह कोई नहीं पूछता कि. मगवन् ! फिर तुमने इस प्रपञ्च कोरचा ही क्यों ? हाय ! रचे तो सब कुछ ईश्वर, और फलभोग करें, बेचारे जीव !!! यह कैसा तमाशा : यह कैसा अन्धेर और यह कैसा न्याय है!!!" अन हम यहां पर यह लिखते हैं कि कुसुम के इस बिलक्षण और अद्धत तर्कवाद को सुनकर वह पण्डा बहुत ही चकित हुआ और बोला,-"चन्द्रप्रभा! तू श्रीजगदीश की खास सम्पत्ति है, इसका एक प्रमाण मुझे और भी मिला! वह यह है कि यदि तुझे श्रीजगदीश ने अङ्गीकार न किया होता तो तू अपनी बाई वग़ल में श्रीजगदीश के चक्र की छाल लेकर माता के पेट से क्यों पैदा होती और तेरी ऐसी विमल और प्रखर बुद्धि ही कैसे होती ? इसलिये मुझे यह दूद विश्वास है कि तुझे श्रीजगदीश ने अवश्य ही अङ्गीकार किया और अपना प्रसाद (तुझे पूर्व जन्म के कर्मानुसार श्रीयुत बाबू बसन्त- कुमार को दिया । ये बातें तो अवश्य ही होनेवाली थीं, जो अन्त में हुई भी; परन्तु इस बीच में, मैंने जो. विना अच्छी तरह जांच किए, तुझे एक वेश्या के हाथ वेच डाला और देवोत्तर-सम्पत्ति पर हस्तक्षेप करने के अलावे कन्या विक्रय का भी महापापकिया, इसका दण्ड मुझे हाथों हाथ मिला 'परन्तु किया पसा जाता पोंकि