परिच्छेद) फसुमकुमारी। मैंतीसवां परिच्छेद, यार बिदाई ! " सुखीमवाधुना भूप, त्यज मां दुःखकर्षिताम् । सवालये न स्थास्यामि. गच्छामि निजमन्दिरम् ॥ (पद्मपुराणे) दान, कुसुम के अद्भुत जीवन और विचित्र चरित्र को कथा सुनकर बेचारे का सिह के पोढ़े कलेजे नमी बड़ी कड़ी चोट खाई ! इससे तो कहीं अच्छा होता, यदि वे इस कहानी के सुनने के पहिलेही मर गए होते! इसके बाद बहुत देर तक राजा कर्णसिंह गोते रहे और कुसुम भी आंसू बहातो रद्दी। फिर राजासाहब ने एक लम्बी सांस ली और हाथ मलकर कहा,-"अफ़सांस, अफ़सोस, बेटी! चन्द्रप्रमा: भाज तूने एक अजीब कहानी मुझे सुनाई ! अरे, कहानी क्या-- यह तो सची कथा है और इसकी पात्री तू मेरे सामने ही मौजूद है। हाय, मेरी पुत्री का यह भयानक परिणाम ! हाहन्त ! हा हन्त !! हा !! चन्द्रप्रभा! अब मैने समझा कि, 'तूने किसलिये इनाम के रुपए और दुशाले हापस किए थे!हा, परमेश्वर !" कुसुम ने कहा,-"खैर, जो नारायण की मर्जी थी, वही हुआ इसमे आपका कुछ भी दोष नहीं है। हाँ, यदि मेरी इस दुर्दशा का कोई कारण होसकता है तो वह मेरा दुर्भाग्य ही होसकता है। मेरे पूर्व जन्म के ऐसे ही पातक थे. जिनके कारण-राजा के घर जन्म लेने पर भी, मैं वेश्या के बर पली; अतएव अब आप अपने जी से सर खेद दूर करिए. मुझे यिदा कीजिए, इन बातों को भूल जाइए और मेरा हाल फिसा पर विशेषकर मेरे भाइ पर मान जाहिर
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