परिच्छेद) कुसुमकुमारी १४५ नारायण भी अवश्य ही प्रहण करेंगे। अब रही, प्रकाश्य रीति से ग्रहण करने की बात, यह मैं नहीं चाहती, क्योंकि न तो ऐसा काम आएको समाज ही कभी करने देगा और नमैं ही अपने लिये समाज में विप्लव उपस्थित करूंगी, क्योंकि यह मैं कभी जीते जी बरदाश्त नही कर सकती कि मेरे कारण आपका सिर नीचा हो और आप समाज में हेय समझे जायं। यर्धाप मैंने आपको टापन्नासचा परिचय देकर अपने जी का बोझ कुछ हलका कर लिया है, पर इससे मेरा मतलप यह कदापि नहीं है कि मैंने जिस तरह इस समय आपकी गोद में स्थान पाया है, उसी तरह जबरदस्ती समाज की गोद में भी स्थान पाने के लिये हठ करू ! यहा पर आप मुझसे यह पूछ सकते हैं कि, 'तो फिर तूने मुझे अपना परिचय ही क्यों दिया?' इसका सीधा-सादा जान्न यही है कि मेरी शाचनीय दशा का हाल जान कर अब आप ऐसा उद्योग करे कि जिससे इस सर्व- माशिनी प्रथा का नामोनिशान इस देश में मिटजाय, और कुमा कन्याओं के धर्म की रक्षा हा हा. यदि देवताओं को कन्याए चढ़ाई ही जायना वे उस तरह बना न चढ़ाई जाय, जैसे वऋरिया चढाई जाती है ! क्योंकि देवताओं के निमित्त चढ़ाई हुई कन्याओं को नाना प्रकार के कुकमा में फंसा देना कदापि उचित नहीं है।" कर्णसिंह ने कहा,-"तेरे परिणाम को देखकर सब मैं इस बान की प्रनिशा करता हूं कि मुझसे जहा तक होमगा,मैं इस"देवदानी" प्रथा की जड़ को खोद कर फेंक देने के लिये भरपूर काशिश करूगा। रही, तेरे ग्रहण करने की बात, इस पर मैं अभी और विचार करूंगा. फिर जैसा मुनासिब समझंगा, करुगा ! कुसुम,-"इस पर अब आप बहुत ज़ियादह सोच-विचार मकरें और अपने दिल में यही समझलें कि आपकी चन्द्रप्रभाअब समार में नहीं है; क्योंकि आप मुझे प्रकाश्यरीति से ग्रहण करने के लिये चाहे कितना ही हठ करें, पर इन दिनों तक रण्डी के घर रह कर और नाचने-गाने का पेशा उठाकर अब मैं न तो जाने जी समाज ही में घुसंगी और न समाज में आपको नीचा ही देखने दूंगी। आप इस बात को स्वद मांच सकते हैं. कि जब कि मैंने एक क्षत्रिय के माथ चुपचाप शादी कर ही ली थी तो फिर जाहिरा तौर से उसक साय उसको श्याइता स्त्री बन पर क्यों न रही और उसका दूसरा करमा । • - - - -
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