स्वगायकुसुम (पनासया नाम पर त्यागी हुई ऐसी कन्याओं की कमी नहीं है, जो वेश्याओं के द्वारा खरीदी जाकर और उनकी पंक्ति में बैठकर उनकी संख्या बढ़ाने के का कारण हुई हैं !" कुसुम की बातें सुनकर राजा कर्णसिंह ने बड़ी मुहब्बत के साथ कहा,--"बेटी कुसुम ! चुन्नी को मैं अच्छी तरह जानता और पहिचानता था तू उसीकी लड़की है, इसलिये तुझपर मेरी वही निगाह है, जो मुझ जैसे सिन-रसीदा लोगों की लड़कियों पर हुआ करती है; इसलिये अब तू बेखौफ होकर मुझे यह बतलाकि इस समय तूने किसलिये मुक से निराले में भेंट की है, और उस"देवदासी" प्रथा के ऊपर जो तूने इतना गहरा तर्क-वितर्क किया है, इससे तेरा क्या अभिप्राय है ?" कुसुम ने कहा,-"जी, सुनिये.-इस समय जिसलिये मैने आएका तकलीफ दी है, उसका मतलब मैं अब आपके आगे प्रगट करती हूं । आशा करती हूं कि मेरे मतलब के सुनने के लिये अब आप हर तरह से तैयार हो जायगे और अपने कलेजे को बहुत ही सजबूत बनालेंगे; क्योकि मेरी बातें बन से भी बढ़कर कठोर है, जो कि आपके दिल के शायद टुकड़े टुकड़े कर डाले तो कोई ताज्जुब नहीं!" राजा कर्णसिंह ने यह सुनकर बड़े आश्चर्य के साथ कहा.-"क्या, ऐसी बात है ? ” कुसुम ने कहा,-'जी हां, यह बात ऐसी ही है, जिसे आज मैं आपके आगे प्रगट कर के जन्म भर के लिये आपसे विदा हूंगी।" कर्णसिंह ने कहा,-"तो, जो कुछ तुझे कहना हो, उसे अब कुसुम,-'आपने कभी जगदीश के सामने यह मिन्नत की थी कि, 'मेरे जो पहिली सन्तान होगी, वह मैं आपकी भेंट करूंगा' ?" कर्णसिंह ने कहा,-" हा, यह बात ठीक है और मैंने ऐसी मिन्नत ज़रूर की थी। इसका कारण यह है कि मुझे जब बहुत दिनों तक कोई सन्तान न हुई, तब लोगों के विशेषकर जगन्नाथी पण्डा त्र्यम्बक के-बहुत आनह करने पर मैंने जगदीश से वैसी मनौती' मानो घी इसी मुझे पहिले पहिल जो कन्या हुई उसे मैन जगदीश के अर्पण कर दिया था उस कन्या का नाम
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